CAPF: अर्धसैनिक बलों के 20000 कैडर अफसरों की 'सुप्रीम' जीत, सरकार को तगड़ा झटका, रिव्यू पिटीशन हुई डिसमिस
केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के लगभग 20 हजार कैडर अधिकारी, जो पदोन्नति एवं वित्तीय फायदों के मामले में पिछड़ रहे हैं, 28 अक्तूबर को सर्वोच्च अदालत में उन्हें 'सुप्रीम' जीत मिली है। सर्वोच्च अदालत में जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की बैंच द्वारा रिव्यू पिटीशन को डिसमिसकिए जाने के बाद केंद्र सरकार को तगड़ा झटका लगा है। इससे पहले कैडर अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट में जीत हासिल हुई थी, लेकिन केंद्र सरकार, उस फैसले के खिलाफ रिव्यू पिटीशन में चली गई। इस मामले में दो सप्ताह पहले एक बड़ा अपडेट सामने आया था। चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने खुद को इस केस की सुनवाई से अलग कर लिया था। मुख्य न्यायाधीश गवई के स्थान पर अब जस्टिस सूर्यकांत ने जस्टिस उज्जल भुइयां के साथ मिलकर इस मामले की सुनवाई की है। हालांकि सीएपीएफ के कैडर अधिकारियों को अब भी यह डर सता रहा है कि रिव्यू पिटीशन डिसमिस होने के बाद भी सरकार उन्हें पदोन्नति एवं आर्थिक फायदे देगी। वजह, इससे पहले ओपीएस के केस में जीत मिलने के बाद सरकार, रिव्यू पिटीशन में चली गई थी। नतीजा, अभी तक वह मामला लटका हुआ है। मई में सुप्रीम कोर्ट ने दिया था ये फैसला बता दें कि केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में 'संगठित सेवा का दर्जा' देने और कैडर अधिकारियों के दूसरे हितों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने इस साल मई में एक अहम फैसला सुनाया था। उसमें कहा गया कि इन बलों में 'संगठित समूह ए सेवा' (ओजीएएस) सही मायने में लागू होगा। केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में केवल एनएफएफयू (नॉन फंक्शनल फाइनेंशियल अपग्रेडेशन) के लिए नहीं, बल्कि सभी कार्यों के लिए 'ओजीएएस पैटर्न' लागू किया जाए। इसके लिए छह माह की समय-सीमा भी तय की गई। 'कैडर रिव्यू', यह भी इसी अवधि में करने के लिए कहा गया। सुनवाई में यह बात सामने आई कि आईपीएस के चलते कैडर अधिकारी, पदोन्नति में पिछड़ जाते हैं। उन्हें नेतृत्व का अवसर नहीं मिल पाता। ऐसे में केंद्रीय बलों में आईपीएस की प्रतिनियुक्ति को धीरे धीरे कम किया जाए। ग्राउंड कमांडरों को 15 साल में पहली पदोन्नति नहीं केंद्र सरकार, इस फैसले के खिलाफ रिव्यू पिटीशन में चली गई। इसके बाद 6 अक्तूबर को मामले की सुनवाई तय हुई, लेकिन किन्हीं कारणों से उस दिन केस की सुनवाई नहीं हो सकी। केस की सुनवाई के लिए आठ अक्तूबर का दिन तय हुआ। सीएपीएफ के हजारों कैडर अधिकारियों को उम्मीद थी कि दशकों से जारी पदोन्नति एवं वित्तीय फायदों की इस लड़ाई में सर्वोच्च अदालत से उनके पक्ष में फैसला आएगा। मौजूदा समय में बीएसएफ और सीआरपीएफ की बात करें तो 2016 से इन बलों में कैडर रिव्यू नहीं हुआ है। यूपीएससी से सेवा में आए ग्राउंड कमांडर यानी सहायक कमांडेंट को 15 साल में भी पहली पदोन्नति नहीं मिल रही। डीओपीटी का नियम है कि हर पांच वर्ष में कैडर रिव्यू होना चाहिए। इस मामले में 27 फरवरी को हुई थी तार्किक बहस इस केस में 27 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में सीएपीएफ के कैडर अधिकारियों के वकील और सरकारी पक्ष के बीच तार्किक बहस हुई थी। उस वक्त न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका एवं जस्टिस उज्जल भुइयां की बैंच ने इस मामले की सुनवाई की थी। न्यायमूर्ति अभय एस ओका ने सुनवाई के बीच दिए अपने रिमार्क में कहा था, इन बलों में प्रतिनियुक्ति को धीरे धीरे कम किया जाए। सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड 'एसएजी' में तो प्रतिनियुक्ति बंद हो। सुनवाई में यह बात सामने आई कि केंद्र की 'समूह-'ए' सेवा में 19-20 वर्ष में सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड (एसएजी) मिल रहा है तो वहीं केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में 36 वर्ष तक लग रहें हैं। निर्णय लेने के मामले में भी पिछड़े कैडर अधिकारी बीएसएफ के पूर्व एडीजी एसके सूद का कहना है कि केंद्रीय बलों में सभी रैंकों को मिलाकर इनकी संख्या दस लाख से ज्यादा है। इनमें करीब बीस हजार कैडर अफसर हैं। इनके लिए पदोन्नति के अवसर बहुत कम हैं। इनके पास कार्य करने की क्षमता और लंबा अनुभव है, लेकिन पॉलिसी लेवल पर निर्णय लेने में इनका इस्तेमाल बहुत कम है, जबकि बॉर्डर या इंटरनल सिक्योरिटी में इनका बड़ा योगदान है। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में केस जीतने के बावजूद कैडर अफसरों को कोई राहत नहीं दी। कैडर अधिकारियों के नेतृत्व में अर्धसैनिक बलों ने राष्ट्र की सुरक्षा तंत्र में अपनी विशिष्ट और निर्णायक भूमिका के साथ एक लंबी यात्रा की है। सीएपीएफ अफसरों ने अपने अपने डोमेन में विशेषज्ञता अर्जित कर ली है। इन अधिकारियों ने कंपनी कमांडर से लेकर कमांड के उच्च पदों तक, समय-समय पर अनुकरणीय नेतृत्व, व्यावसायिकता और परिचालन दक्षता का प्रदर्शन किया है। इतिहास, सैकड़ों सीएपीएफ अधिकारियों द्वारा दिए गए सर्वोच्च बलिदानों का साक्षी है। इतना होने पर भी पुलिस अफसरों द्वारा इन्हें कमांड किया जाता है। 1986 से सरकार ने इन्हें ओजीएएस माना था बतौर एसके सूद, पुलिस अधिकारी, अपने राज्य को छोड़कर केंद्र में इन बलों में प्रतिनियुक्ति पर आ जाते हैं। ऐसे में पुलिस अधिकारियों को काम करने का तरीका मालूम नहीं होता। वे पुलिस के मुताबिक, इन बलों को चलाने का प्रयास करते हैं। 1986 से सरकार ने इन्हें ओजीएएस माना था। 2006 में वेतन आयोग ने इन्हें एनएफएफयू देने का समर्थन किया। इसे भी लागू नहीं किया गया। नतीजा, कैडर अफसरों न तो समय पर पदोन्नति मिल सकी और न ही वित्तीय फायदे। सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ और दूसरे बलों में बहुत पदोन्नति को लेकर हालात खराब होते चले गए। कैडर अधिकारी, 15 साल में पहली पदोन्नति नहीं पा सके। इस रफ्तार से तो वे कमांडेंट के पद से ही रिटायर हो जाएंगे। दो तीन सौ अफसरों में से एक आध ही एडीजी तक पहुंच सकेगा। आईपीएस की प्रतिनियुक्ति को नहीं रोका जा सका सीआरपीएफ के पूर्व सहायक कमांडेंट एवं अधिवक्ता सर्वेश त्रिपाठी कहते हैं 2015 में जब दिल्ली हाईकोर्ट ने कैडर अफसरों के हक में फैसला दिया तो सरकार उसके खिलाफ, सुप्रीम कोर्ट में चली गई। 2019 में सरकार की एसएलपी डिसमिस हो गई। सर्वोच्च अदालत ने कहा, इन बलों के कैडर अधिकारी, ओजीएएस के हकदार हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सीएपीएफ में प्रतिनियुक्ति को धीरे धीरे खत्म किया जाना चाहिए। इन बलों में पहले सैन्य अधिकारी भी प्रतिनियुक्ति पर आते थे, लेकिन बाद में उस पहल को बंद कर दिया गया। आईपीएस की प्रतिनियुक्ति को नहीं रोका जा सका। अब आईपीएस की प्रतिनियुक्ति बंद होनी चाहिए। वजह, आईपीएस के चलते कैडर अधिकारी, पदोन्नति में पिछड़ जाते हैं। उन्हें नेतृत्व का अवसर नहीं मिल पाता। डेढ़ दशक में पदोन्नति नहीं मिल रही। कंपनी कमांडर को शीर्ष पदों पर जाने का अवसर दिया जाए। 1955 के फोर्स एक्ट में भी प्रावधान नहीं केंद्रीय बलों के पूर्व कैडर अफसरों के मुताबिक, 1970 में तत्कालीन होम सेक्रेट्री लल्लन प्रसाद सिंह, ज्वाइंट सेक्रेटरी, बीएसएफ व सीआरपीएफ के डीजी ने लिखा था कि केंद्रीय सुरक्षा बलों में आईपीएस के लिए पद आरक्षित न किया जाए। 1955 के फोर्स एक्ट में भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इन बलों के कैडर अधिकारियों को ही नेतृत्व का मौका दिया जाए। वे आगे बढ़ेंगे और पदोन्नति के जरिए टॉप तक पहुंच जाएंगे। ये सलाह नहीं मानी गई और केंद्रीय सुरक्षा बलों में अधिकांश पद आईपीएस के लिए रिजर्व कर दिए गए। अब अदालत से लड़ाई जीतने के बाद भी कैडर अफसरों को उनका वाजिब हक नहीं दिया जा रहा है। पूर्व कैडर अधिकारियों का कहना है कि 1959 में पहली बार आईपीएस अधिकारी, कमांडेंट बन कर केंद्रीय सुरक्षा बलों में आए थे। ये भी तब हुआ, जब आर्मी ने कहा कि हम अफसर नहीं देंगे। हमें अपनी जरूरतें पूरी करनी हैं। इसके बाद भारत सरकार ने निर्णय लिया कि इन बलों में अफसरों की भर्ती शुरू की जाए। केंद्रीय बलों में आईपीएस के पद आरक्षित न हों डीएसपी के पद पर भर्ती प्रक्रिया पूरी होने के बाद 1960 में पहला बैच ट्रेनिंग के लिए एनपीए में पहुंचा। वहां आईपीएस के साथ इन अफसरों की ट्रेनिंग हुई। 1962 में लड़ाई छिड़ी तो इन बलों में इमरजेंसी कमीशंड ऑफिसर भेजे गए। लड़ाई खत्म होने के बाद वे वापस लौट गए। बाद के वर्षों में सीआरपीएफ और बीएसएफ ने खुद के चार सौ से अधिक अफसर तैयार कर लिए। डीजी बीएसएफ केएफ रुस्तम ने कहा, केंद्रीय सुरक्षा बलों में आईपीएस अफसर के लिए पदों का आरक्षण न किया जाए। हम अपने अफसर तैयार करेंगे, जो कुछ समय बाद फोर्स का नेतृत्व करेंगे। 1968 में सीआरपीएफ के पहले डीजी वीजी कनेत्कर ने कहा था, मुझे आईपीएस की जरूरत नहीं है। तत्कालीन गृह सचिव एलपी सिंह ने भी दोनों बलों के डीजी की बात को सही माना। सिंह ने कहा, शुरू में बीस फीसदी अफसर आर्मी व आईपीएस से ले लो। थोड़े समय बाद डीआईजी, कमांडेंट और सहायक कमांडेंट के पद कैडर को सौंप दिए जाएं, लेकिन आईपीएस के लिए वैधानिक आरक्षण न किया जाए। कैडर अफसरों के मौके प्रभावित होंगे 1970 में गृह मंत्रालय के डिप्टी डायरेक्टर 'संगठन' जेसी पांडे ने लिखा, केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में आईपीएस के लिए पद फिक्स मत करो। इससे कैडर अफसरों के मौके प्रभावित होंगे। सीआरपीएफ डीजी ने कहा, अब केवल वर्किंग फार्मूला ले लो, जो बाद में नई व्यवस्था के साथ परिवर्तित हो जाएगा। आईपीएस, आर्मी और स्टेट पुलिस, इन तीनों के अफसरों के लिए सुरक्षा बलों में डीआईजी, कमांडेंट और एसी के पद पर आरक्षण न हो। हालांकि बाद में इस व्यवस्था को मनमाने तरीके से लागू किया गया। नतीजा, कैडर अधिकारी, पदोन्नति में पिछड़ते चले गए।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Oct 30, 2025, 19:34 IST
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