चिराग पासवान की जीत ने बढ़ा दी किसकी परेशानी?
बिहार की राजनीति में चिराग पासवान इस चुनाव में ऐसे उभरे हैं, जैसे रात के अंधेरे में अचानक चमककर आकाश को रोशन कर देने वाला धूमकेतु। लंबे समय से दलित राजनीति में मायावती और जीतनराम मांझी जैसे दिग्गजों का प्रभाव लगातार कम हो रहा था, ऐसे माहौल में चिराग ने न केवल अपने लिए जगह बनाई, बल्कि अप्रत्याशित तरीके से तरक्की करते हुए खुद को राष्ट्रीय परिदृश्य के केंद्र में ला खड़ा किया। दिलचस्प बात यह है कि फिल्मों से करियर शुरू करने वाले चिराग को जब सिनेमा में सफलता नहीं मिली, तब राजनीति उनकी मंज़िल बन गई और अब यह मंज़िल उन्हें शीर्ष नेतृत्व की पंक्ति में खड़ा कर चुकी है। चिराग पासवान के उभार की सबसे अहम वजह है उनका बिहारी फर्स्ट मॉडल। उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से विकास, सम्मान और युवा आकांक्षाओं को केंद्र में रखकर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाया, उसने उन्हें बिहार के युवाओं का बेहद पसंदीदा चेहरा बना दिया। भाजपा नेतृत्व द्वारा लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 29 सीटें देने पर कुछ सहयोगी दलों ने भले ही नाराज़गी जताई हो, पर चिराग ने अपने प्रदर्शन से साबित कर दिया कि यह भरोसा बिल्कुल सही था। 29 में से 19 सीटों पर जीत हासिल करना न सिर्फ चिराग की लोकप्रियता दिखाता है, बल्कि यह भी बताता है कि दलित राजनीति का नया केंद्र अब बिहार में बदल रहा है। यह प्रदर्शन इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि लोजपा ने पिछले दो दशकों में इतना बेहतर प्रदर्शन नहीं किया था। 2005 के चुनाव में पार्टी ने जरूर 29 सीटें जीती थीं, लेकिन उसके बाद इसका ग्राफ लगातार नीचे जाता गया। 2020 के विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ते हुए चिराग को सिर्फ एक सीट मिली, लेकिन उन्होंने जो वोट शेयर बरकरार रखा, वह उनके कोर दलित वोट बैंक की मजबूत पकड़ का संकेत था। इसी आधार ने उन्हें इस चुनाव में फिर से बड़ी जीत की ओर पहुंचाया। चिराग की राजनीति का दूसरा बड़ा पहलू है उनकी संतुलित और रणनीतिक बयानबाज़ी। भाजपा के साथ नजदीकी बनाए रखने के बावजूद उन्होंने अल्पसंख्यक और सामाजिक मुद्दों पर अपनी स्पष्ट राय रखकर यह संदेश दिया कि वह केवल गठबंधन की राजनीति नहीं करते, बल्कि अपनी राजनीतिक पहचान भी मजबूत रखना जानते हैं। यही संतुलन उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ एनडीए के पांच सबसे लोकप्रिय प्रचारकों की श्रेणी में ले आया। रैलियों में उनकी भीड़, सोशल मीडिया पर उनका प्रभाव, और युवाओं के बीच उनकी स्वीकार्यता ने उन्हें एक करिश्माई नेता के रूप में स्थापित किया है। 43 वर्ष की उम्र में चिराग पासवान अब केवल रामविलास पासवान के उत्तराधिकारी नहीं रह गए उन्होंने खुद की एक अलग पहचान बना ली है। यह पहचान विकासवादी सोच, युवाओं से संवाद और बिहार की राजनीति में नई ऊर्जा का प्रतीक है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि चिराग का यह उभार दलित राजनीति की नई धारा की शुरुआत है। जहां पारंपरिक दलित नेता अपनी पकड़ खोते दिख रहे हैं, वहीं चिराग का बढ़ता प्रभाव यह संकेत दे रहा है कि बिहार में किसी भी गठबंधन के लिए उनकी भूमिका अब निर्णायक हो गई है। भविष्य में उनकी पार्टी एनडीए की राजनीति में कितना अहम मोड़ लाती है, यह देखने वाली बात होगी, लेकिन इस चुनाव ने यह तो साफ कर दिया है कि बिहार की राजनीति अब चिराग पासवान के बिना अधूरी है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 15, 2025, 13:51 IST
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