कुरुक्षेत्र: मोदी या राहुल किसके खाते में जाएगी जातीय जनगणना की पूंजी?
अपनी चिर परिचित शैली के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को पहलगाम के आतंकी हमले से तमतमाए देश को अचानक तब चौंका दिया जब केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में अगली जनगणना में जातीय जनगणना को भी शामिल करने को हरी झंडी दे दी गई।राहुल गांधी समेत सभी विपक्षी नेताओं ने इसके लिए उनके द्वारा सरकार बनाए गए दबाव की जीत बताया तो भाजपा नेताओं ने आजादी के बाद पहली जातीय जनगणना कराने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देते हुए यह कहते हुए कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को कटघरे में खड़ा किया कि अपनी सरकारों के दौरान उन्होंने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। कांग्रेस,सपा,राजद आदि विपक्षी दल इस मुद्दे को भाजपा और संघ परिवार के हिंदुत्व की काट मान रहे हैं तो भाजपा इसे प्रधानमंत्री मोदी का मास्टर स्ट्रोक बताते हुए विपक्ष से उसके सबसे धारदार मुद्दे को छीन लेने का दावा कर रही है।दरअसल जाति जनगणना मंडल दो की शुरुआत है और यह भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए शेर की सवारी जैसा है, जिस पर चढ़ना आसान है लेकिन उतरने पर शिकार होने का खतरा भी है।सवाल है कि जातीय जनगणना की राजनीतिक पूंजी मोदी या राहुल किसके खाते में जाएगी। केंद्र सरकार की इस घोषणा से लोग इसलिए चौंके कि जनता इंतजार कर रही थी कि 22 अप्रैल को कश्मीर में 26 से ज्यादा लोगों की जान वाले हुए आतंकवादी हमले के बाद जिस तरह सरकार में उच्च स्तर पर बैठकों का दौर चल रहा था तो लोग सोच रहे थे कि मंत्रिमंडल की बैठक के बाद उन्हें पाकिस्तान के खिलाफ उठाए जाने वाले कुछ और कड़े कदमों की जानकारी मिलेगी।लेकिन जब खबर आई कि केंद्र सरकार अब जातीय जनगणना कराएगी तो पूरा विमर्श ही बदल गया।टीवी चैनलों में पिछले एक सप्ताह से लगातार बैठे रक्षा विशेषज्ञों पूर्व सैनिक अधिकारियों से माफी के साथ उनकी जगह राजनीतिक विश्लेषकों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिठाकर जातीय जनगणना के मुद्दे के अनेक पहलुओं पर चर्चा शुरु हो गई। जातीय जनगणना की जड़े साठ के दशक में समाजवादियों के इस नारे में हैं कि संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ।समाजवादियों ने जब यह नारा दिया तब कांग्रेस तो इसके विरोध में थी ही, तत्कालीन जनसंघ (भाजपा) और वामदल भी इसके पक्ष में नहीं थे।कांग्रेस के लिए यह नारा उसके सवर्ण अल्पसंख्यक और दलित जनाधार के माफिक नहीं था तो जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे हिंदू समाज को जातियों में बांटने की साजिश मानता था और वामदलों के लिए जाति नहीं बल्कि वर्ग का सवाल केंद्रीय मुद्दा था।1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद समाजवादी खेमे(जिसमें लोकदल भी शामिल था) ने अपने वैचारिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए मंडल आयोग का गठन किया जिसकी रिपोर्ट 1980 में तब आई जब केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस दोबारा सत्ता में लौट आई थी।कांग्रेस सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया और करीब दस साल बाद आठ अगस्त 1990 को विश्वनात प्रताप सिंह की सरकार ने पूरे देश को चौंकाते हुए अचानक मंडल आयोग की सिफारिश के मुताबिक सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान कर दिया।विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यह घोषणा किसी सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण नहीं बल्कि अगले दिन यानी नौ अगस्त को दिल्ली के बोट क्लब पर होने वाली चौधरी देवीलाल, चंद्रशेखर और कांशीराम की रैली में उठने वाली सरकार विरोधी आवाज को बेअसर करने के लिए तत्कालीन सामाजिक अधिकारिता मंत्री रामविलास पासवान और कपड़ा मंत्री शरद यादव के सुझाव और दबाव में की थी।क्योंकि नौ अगस्त की रैली में यह देवीलाल, चंद्रशेखर और कांशीराम मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने की मांग को लेकर एक बड़े आंदोलन की घोषणा करने वाले थे।इसलिए वीपी सिंह का राजनीतिक मजबूरी ने मंडल आयोग का पिटारा खोल दिया।कांग्रेस ने मंडल आयोग का खुलकर विरोध सड़क से लेकर संसद तक किया जबकि भाजपा ने मंडल के जवाब में कमंडल को आगे करते हुए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग को लेकर लाल कृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा शुरु कर दी और बिहार में आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद वीपी सिंह सरकार का पतन हो गया। दिलचस्प यह है कि संसद में मंडल लाने वाली विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के खिलाफ कांग्रेस,भाजपा और जनता दल के चंद्रशेखर देवीलाल गुट ने हाथ मिलाया और सरकार गिर गई। इसके बाद देश का राजनीतिक वातावरण बदल गया।मंडल राजनीति ने सबसे ज्यादा उत्तर भारत को प्रभावित किया और जहां उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, मायावती और बिहार में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार जैसे छत्रपों का उदय हुआ तो राष्ट्रीय राजनीति में रामविलास पासवान शरद यादव बेहद अहम हो गए।मंडल के असर ने भाजपा में तत्कालीन संगठन महासचिव के.एन.गोविंदाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति को जन्म दिया।राम मंदिर आंदोलन से उत्तर प्रदेश में 1991 में बनी पहली भाजपा सरकार का मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग के कल्याण सिंह को बनाकर मंडल कमंडल दोनों को साधने की कवायद शुरु हुई।पिछड़े वर्गों से आने वाले विनय कटियार, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान, प्रहलाद पटेल जैसे अनेक नेताओं का भाजपा में कालांतर में उदय हुआ।लेकिन कांग्रेस अपने पुराने ढर्रे पर ही चलती रही और सिमटती गई।उत्तर प्रदेश व बिहार में कांग्रेस मुलायम और लालू की पिछलग्गू हो गई तो मध्य प्रदेश में सुभाष यादव जैसे कद्दावर पिछड़े नेता को मुख्यमंत्री न बनाकर पिछड़े वर्गों को भाजपा की तरफ मोड़ दिया गया। एक लंबे अरसे बाद पिछले करीब दो साल से राहुल गांधी ने कांग्रेस के पुराने चरित्र और प्रकृति के उलट जातीय जनगणना के मुद्दे को उठाना शुरु किया और इस शिद्दत से उठाया कि वह सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले तमाम नेताओं से आगे निकल गए और जातीय जनगणना का मुद्दा मुख्य रूप से उनका मुद्दा बन गया।राहुल की इस जिद ने कई पुराने दिग्गज कांग्रेसियों को असहज किया उनमें से कुछ ने तो अपना रास्ता भी बदल लिया।सड़क से लेकर संसद तक राहुल ने अपने हर भाषण में जातीय जनगणना कराने की मांग करते हुए केंद्र की भाजपा सरकार को लगातार घेरा।जबकि भाजपा इस मुद्दे पर पहले ढुलमुल रही फिर खुलकर विरोध पर उतर आई।बिहार से जब नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव इस मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री मोदी से मिले तो बिहार भाजपा के नेता भी साथ थे।उन्होंने भी इसका समर्थन किया। लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने जातीय जनगणना को लेकर अलग रुख रखा।2021 में संसद में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने एक सवाल के जवाब में साफ कहा कि केंद्र सरकार का जातीय जनणना कराने का कोई इरादा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में भी इसी आशय के जवाब केंद्र ने दिए।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों से पहले जातीय जनगणना की मांग को विभाजनकारी बताते हुए कहा कि उनके लिए देश में सिर्फ चार जातियां हैं महिला, किसान, युवा और गरीब।संघ पदाधिकारियों नें भी समय समय पर जातीय जनगणना को हिंदुओं को बांटने का षड़यंत्र बताते हुए इससे असहमति जाहिर की।योगी आदित्यनाथ ने भी इस मुद्दे को उठाने वालों की मानसिकता पर सवाल उठाए।भाजपा के शीर्ष नेताओं ने जातीय जनगणना की मांग को राजनीतिक पाप तक कहा।लेकिन राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और अन्य विपक्षी नेता इस मांग को लगातार उठाते रहे।साथ ही एनडीए के घटक दलों में जद(यू) और चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा, अनुप्रिया पटेल, रामदास आठवले जैसे नेताओं ने भी जातीय जनगणना की मांग का समर्थन करते हुए एनडीए के भीतर अपनी आवाज उठाई।ज्यादा दबाव बढ़ने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता सुनील अंबेकर ने कहा कि संघ को जातीय जनगणना से कोई एतराज नहीं लेकिन इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।इसके बावजूद जातीय जनगणना को लेकर भाजपा का रुख असहमति का ही रहा। क्योंकि उसे इससे अपने सवर्ण जनाधार की नाराजगी और हिंदुत्व की राजनीति के कमजोर होने का खतरा दिखा रहा था।इसीलिए जब लोकसभा चुनावों में जातीय समीकरणों ने भाजपा की सीटें 303 से घटाकर 240 कर दीं तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बटोंगे तो कटोगे का नारा देकर हिंदुओं की एकता पर जोर दिया।योगी के इस नारे को संघ का भरपूर समर्थन मिला और महाराष्ट्र चुनाव में सहयोगी दलों खासकर एनसीपी अजित पवार का ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस नारे को नरम बनाते हुए कहा एक हैं तो सेफ हैं।यहां भी हिंदुओं की एकता पर जोर था।पूरे महाराष्ट्र चुनाव में यही नारा भाजपा के चुनाव अभियान का केंद्रीय नारा था और इसका उसे भऱपूर फायदा मिला। इसके बावजूद राहुल गांधी ने अपनी यह मांग नहीं छोड़ी और उन्होंने कई राज्यों में संविधान बचाओ सम्मेलन आयोजित करके जातीय जनगणना की मांग को लगातार उठाया और संसद में भी यहां तक कह दिया कि हम इसी लोकसभा में सरकार से जातीय जनगणना करवा कर मानेंगे।तब राहुल की मांग और भाषणों को भाजपा और सरकार ने हवा में उड़ा दिया था।लेकिन अब जब अचानक केंद्र सरकार ने जातीय जनगणना करवाने की घोषणा की है तो सत्ता पक्ष और विपक्ष में इसका श्रेय लेने की होड़ मच गई है। कांग्रेस राहुल और भाजपा नेताओं के पुराने भाषणों का हवाला देकर इस फैसले को अपने दबाव का नतीजा बता रही है तो भाजपा उसे 77 सालों तक न कराए जाने का ताना देकर श्रेय लेने की कोशिश में है।अखिलेश यादव इसे पीडीए की जीत तो तेजस्वी इसे लालू यादव के संघर्ष का नतीजा बता रहे हैं।श्रेय की होड़ के साथ ही अब जातीय जनगणना से भावी राजनीति के स्वरूप में बदलाव को लेकर भी बहस शुरु हो गई है।राहुल गांधी ने जातीय जनगणना के आगे की बात शुरु कर दी है।उन्होंने निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधानों 15(5) को लागू करने और आरक्षण की 50 फीसदी अधिकतम सीमा को बढ़ाने की मांग शुरु कर दी है।हालांकि जातीय जनगणना जनगणना के साथ एक लंबी प्रक्रिया से पूरी होगी।अभी इसकी कोई समय सारिणी या समय सीमा घोषित नहीं हुई है।विपक्ष इसकी भी मांग कर रहा है।लेकिन अब भावी राजनीति इस प्रमुख मुद्दे के इर्द गिर्द घूमेगी। भाजपा के सामने चुनौती है कि जातीय जनगणना से लोगों की जो जातीय पहचान मजबूत होगी उसे फिर से हिंदू पहचान में बदलकर अपने हिंदुत्व के छाते को कैसे मजबूत करे।जबकि कांग्रेस के सामने चुनौती है कि आमतौर से कांग्रेस से दूर रहने वाला पिछड़ा वर्ग जातीय जनगणना का श्रेय उसे देकर उसके साथ कैसे जुड़े।सपा राजद लोजपा बसपा जैसे सामाजिक न्याय की राजनीति वाले दल किस तरह इस मुद्दे को अपने पक्ष में भुनाएंगे यह सवाल उनके सामने भी है।लेकिन 1990 का उदाहरण ऐसा है कि राजनीतिक मजबूरी में मंडल लागू करने वाले वीपी सिंह और उनका जनता दल 1991 का लोकसभा चुनाव हार गया और मंडल राजनीति का लाभ उन छत्रप नेताओं को मिला जो पिछड़े वर्गों के भी थे और पिछड़े वर्गों की राजनीति भी करते थे।भाजपा ने भी अगर राजनीतिक मजबूरी में जातीय जनगणना को लागू करने की घोषणा की है तो क्या वह उसका राजनीतिक श्रेय संभाल पाएगी क्योंकि इस मुद्दे पर अतीत में उसके नेताओं के बयान और भाषण विपक्ष का हथियार बनेंगे।लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खुद पिछड़े वर्ग का होना उसके पक्ष में है और कांग्रेस इसकी काट कैसे कर पाएगी।जातीय जनगणना को अगर मंडल-2 माना जाक्षेत्रए तो तय मानिये कि यह मुद्दा सिर्फ जातियों के आंकड़ों की जानकारी तक ही सीमित नहीं रहेगा।आंकड़े आने के बाद संख्या के मुताबिक राजनीतिक सामाजिक आर्थिक हिस्सेदारी का सवाल उठेगा और बात निजी क्षेत्र और अन्य अनारक्षित क्षेत्रों में आरक्षण देने तक भी जा सकती है।आने वाले दिन राजनीति में बेहद उथल पुथल वाले होंगे और देश के राजनीतिक विमर्श का चरित्र और चिंतन दोनों ही बदलेगा।
- Source: www.amarujala.com
- Published: May 02, 2025, 07:20 IST
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