Bihar Election: मुस्लिम वोट की दोहरी मार, सन्नाटे का शोर सबसे ज्यादा
बिहार में ऐतिहासिक मतदान प्रतिशत अपने साथ राजनीतिक विरोधाभास भी सामने लाया है। एक तरफ, यह मुस्लिम मतदाताओं के साइलेंट कंसोलिडेशन का संकेत है। दशकों में पहली बार संगठित और रणनीतिक वोटिंग का पैटर्न दिखा, जो सीधे महागठबंधन के पक्ष में इतिहास रचने की क्षमता रखता है। दूसरी तरफ, यही एकजुटता उत्तरी बिहार और सीमांचल के रण में असदुद्दीन ओवैसी के दमदार फैक्टर से टकरा रही है। 2020 में पांच सीटें जीतकर सीमांचल की सियासत में नई लकीर खींच चुके ओवैसी इस बार भावनात्मक उभार के साथ लौटे हैं। हमें जलील किया गया, उनकी यह लाइन अब उनके हर भाषण की रीढ़ बन गई है। नतीजा यह कि मुस्लिम वोटर का एक वर्ग, खासकर युवा, अपमान के प्रतिकार में ओवैसी के पीछे खड़ा दिख रहा है। यह स्थिति इस चुनाव के सबसे निर्णायक वोट बैंक को दो हिस्सों में बंटने का संकेत कर रही है। मुस्लिम महिला मतदाता का सुरक्षा बनाम डर का फैसला और ओवैसी का भावनात्मक उभार पूरे बिहार के चुनावी समीकरण को जटिल बना रहा है। पटना से लेकर अररिया तक मुस्लिमों के बीच इस बार मतदान की चुप्पी के भीतर संगठन की गूंज है। वोट बंट जाने की पिछले चुनाव की गलती से सबक लेते हुए मुस्लिम समाज ने इस बार एकतरफा रुख अपनाया है। महागठबंधन खासतौर से राजद की रणनीति कुछ हद तक पूरे बिहार में असर दिखा रही है। यह रणनीति है कि बिना किसी शोर के, बिना किसी दिखावे के चुपचाप ज्यादा से ज्यादा मतदान करना है, भाजपा को रोकने के लिए। अररिया के परवेज आलम कहते हैं कि मुसलमान बंट कर वोट करते हैं, इसलिए हारते हैं। इस बार हम एक हैं। यह लाइन बताती है कि समुदाय के भीतर यह समझ गहरी हो चुकी है कि राजनीतिक बिखराव, एनडीए की मजबूती का सबसे बड़ा कारण रहा है। मुस्लिम महिला, नीतीश व भाजपा इस बार मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी रिकॉर्ड स्तर पर रही है। बूथों पर कतारें सिर्फ वोट की नहीं, बल्कि सुरक्षा और सुविधा की भावना का प्रतीक थीं। नीतीश के शासन में कानून-व्यवस्था और कल्याण योजनाओं का अनुभव सकारात्मक होने के बावजूद यह समर्थन पहले की तरह वोट में नहीं बदला। वजह यह डर कि भाजपा के रहते नीतीश फिर मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे। ज्यादा वोट की वजह यह थी कि महिलाओं के मन में यह सवाल बैठ गया कि अगर सरकार बदली तो 10 हजार रुपये और छात्रवृत्ति जैसी योजनाएं कौन देगा यह उनके लिए राजनीतिक अधिकार से अधिक पारिवारिक सुरक्षा का मुद्दा बन गया है। मतदाता सूची से नाम कटने की आशंका और गैस, राशन, छात्रवृत्ति को खोने का डर उन्हें मतदान के लिए प्रेरित कर रहा है। यही डर, यही असुरक्षा उनमें से ज्यादातर को महागठबंधन के खेमे की तरफ खींचता दिखता है। ओवैसी के अपमान कार्ड का असर तस्लीमुद्दीन के बाद बिहार में मुस्लिम राजनीति नेतृत्वहीन रही है। ओवैसी ने इसी खालीपन को अपनी जमीन बनाया। किशनगंज, अमौर व बहादुरगंज में उनकी सभाओं में युवाओं की भारी भीड़ सबूत है कि उनका नैरेटिव सिर्फ धार्मिक नहीं, सम्मान आधारित पहचान का है। पूर्णिया के अमीर हसन कहते हैं, हमारा कोई नेता नहीं है, ओवैसी ही बोलते हैं हमारी बात। हालांकि उनके पुराने विधायक राजद में चले गए, फिर भी यह भावना है कि भले वह जीतें या हारें, झुकते नहीं। यह भाव सीमांचल में उनकी प्रासंगिकता बनाए हुए है। ओवैसी की रैलियों का केंद्रीय मुद्दा महागठबंधन की ओर से उन्हें दरकिनार किया जाना और अपमानित किया जाना है। वह साफ कह रहे हैं कि उन्हें जलील किया गया। उन्हें चरमपंथी बताया जाना भी युवाओं के बीच सहानुभूति पैदा कर रहा है। यह अपमान का नैरेटिव बहादुरगंज और अमौर जैसी सीटों पर युवाओं को भावनात्मक वोट देने के लिए प्रेरित कर रहा है। भले ही 2020 में जीते उनके विधायक उन्हें छोड़कर राजद में चले गए, फिर भी किशनगंज के मतदाता जिया उल हक कहते हैं, हमें सिर्फ ओवैसी से उम्मीद है। यह दिखाता है कि व्यक्तिगत नाकामी से अधिक ओवैसी की विचारधारा युवाओं के एक धड़े को अब भी अपील करती है, जिससे महागठबंधन की संगठित वोट की रणनीति सीमांचल में भंग हो सकती है। संगठित ताकत बनाम भावनात्मक बिखराव पहले चरण का सबसे बड़ा सबक यही है कि मुस्लिम मतदाता अब एक संगठित राजनीतिक शक्ति है। उनकी प्राथमिकता मजहबी पहचान के साथ सुरक्षा, योजनाओं की निरंतरता और सामाजिक सम्मान है। तेजस्वी के सीमांचल डेवलपमेंट काउंसिल जैसे वादों ने भी उन्हें नया भरोसा दिया है। इसके बाद भी ओवैसी का अपमान नैरेटिव सीमांचल में असरदार हुआ, तो यही इलाका महागठबंधन के लिए डैमेज-जोन भी बन सकता है। पहले चरण की 40 में से लगभग 35 सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका में हैं। यह साइलेंट कंसोलिडेशन दूसरे चरण में भी कायम रहा, तो समीकरण पलट सकते हैं। लेकिन ओवैसी की भावनात्मक सेंध अगर और गहरी गई तो संगठित रणनीति फिर उसी जगह टूटेगी, जहां 2020 में टूटी थी। ये भी पढ़ें: Bihar Election: रोजगार, घुसपैठ, सांस्कृतिक पहचान और पलायन, सीमांचल का वोटर 'सुरक्षा' और 'अस्मिता' के बीच फंसा चुनावी नारों में छिपे जातीय और राजनीतिक संदेश जंगलराज लौटेगा: नीतीश रहे, तो चैन रहेगा, नहीं त फिर वही पुरान दिन। एनडीए की ओर से अगड़ी जातियों, ईबीसी और महिला वोटरों को दिया गया सीधा संदेश था। छिपा हुआ संदेश साफ था कि महागठबंधन की वापसी से सुरक्षा व सामाजिक अस्थिरता का डर पैदा करना और जातीय वर्चस्व को रोकना। तेजस्वी ही रोजगार: महागठबंधन ने मंच से तेजस्वी ही रोजगार, तेजस्वी ही बदलाव के नारे के साथ लालू राज की पुरानी छवि से दूरी बनाई। यह बेरोजगारों और गैर यादव युवाओं को लक्षित करता था, जिसका मकसद तेजस्वी की नई छवि को स्थापित करना और नौकरी के वादे के इर्द-गिर्द युवा वर्ग को गोलबंद करना था। चुपचाप वोट: महागठबंधन समर्थकों ने मुस्लिम समुदाय को यह संदेश दिया। सन्नाटे का शोर सबसे ज्यादा मौन माई और महिला कवच, दो खामोश सेनाएं आमने-सामने एनडीए : सुशासन का नारा और महिला कवच पटना में दो हफ्तों से हेलिकॉप्टरों की आवाज लगातार गूंजती रही। पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तक हर बड़े चेहरे ने बिहार की जमीन पर दस्तक दी। हर सभा, हर रोड शो में संदेश एक हीनीतीश कुमार का नेतृत्व और सुशासन की वापसी। अशक्त कहे जा रहे नीतीश के 163 से अधिक रैलियां करने का आंकड़ा अपने आप में बताता है कि एनडीए ने चुनावी मोर्चा किसी एक दल पर छोड़ा ही नहीं। एनडीए के बूथ प्रमुख अगड़ी और ईबीसी बस्तियों में जंगलराज का डर दोहराते दिखे। महिलाओं के बीच तस्वीर अलग है। दलित बस्तियों से गाव की चौपालों तक महिलाएं नीतीश के लिए सधी हुई वफादारी के साथ खड़ी दिखती हैं। शराबबंदी, पेंशन, साइकिल मनी, आंगनवाड़ी योजनाएंसभी का असर उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में सीधे-सीधे महसूस होता है। यही एनडीए का महिला कवच है। हालांकि जमीनी रिपोर्ट अलग कहानी कहती है। खासकर युवाओं की नजरों में एक सवाल सा दिखता रहा कि नौकरी कहां है। ये भी पढ़ें: Exclusive: सियासत में सेना को तो छोड़ दीजिए, वोट चोरी के तथ्य हैं तो आयोग को दें: राजनाथ सिंह महागठबंधन: मौन व युवा बेचैनी तेजस्वी की सभाओं का अलग रंग दिखा। कम शोर ज्यादा अनुशासन। मंच पर तेजस्वी बेरोजगारी महंगाई और सरकारी नौकरी की बात करते हैं। मंच के पीछे ब्लॉक स्तर के नेता मौन माई समीकरण मुस्लिम और यादव वोट को धीरे-धीरे एकजुट करने में लगे रहते हैं। मुस्लिम बहुल इलाकों में बड़ी रैलियां नहीं, छोटे-छोटे संपर्क अभियान हुए। लक्ष्य स्पष्ट था, ज्यादा शोर से ध्रुवीकरण बढ़ सकता है, इसलिए साइलेंट गोलबंदी ही काम करेगी। यादव बस्तियों में पुरानी पारिवारिक निष्ठा अभी भी कायम है, जबकि गैर यादव बेरोजगार युवाओं में तेजस्वी की नई छवि ने जगह बनाई है। यह बदलाव सीमांचल की गलियों में सर्वाधिक महसूस होता है, जहां महागठबंधन की कतारों में मुस्लिम महिलाओं की शांत उपस्थिति और युवाओं की उत्सुकता एकसाथ दिखी। महागठबंधन के स्थानीय नेता यादव और मुस्लिम समुदाय को एकजुट रहियेकी फुसफुसाहट सुनाते रहे। तीसरी परत: पीके और ओवैसी की भूमिका प्रशांत किशोर की जन सुराज राज्यव्यापी लहर तो नहीं बना पाई, पर कई सीटों पर अगड़ी जातियों और पढ़े-लिखे युवाओं में उनका प्रभाव दिखा। इससे मुकाबला त्रिकोणीय बन गया। सीमांचल में एआईएमआईएम की भूमिका भी इसी तरह है। बूथों पर उनका असर महागठबंधन के मुस्लिम वोटबैंक में हल्की सी दरार डाल सकता है। ये भी पढ़ें: Bihar Election 2025: पहले चरण में मिथक का क्षरणढह रही जातीय गोलबंदी; महिलाएं बन रहीं किंगमेकर मंच पर विकास, गलियों में जाति इन सबके बीच जिस चीज की मौजूदगी सबसे ज्यादा खटकती है, वह है जाति। किसी ने मंच पर इसकी बात नहीं की। किसी पोस्टर पर जातीय संदेश नहीं दिखा, पर कैंपेन की असली भाषा जाति में ही थी। मंचों पर विकास, गलियों में जाति की सच्चाई खुलेआम थी। एनडीए के बूथ कैंप में अगड़ी जाति के बुजुर्ग प्रभारी और महागठबंधन के लोकल कैंपों में हमारा लड़का वाली भावना सीधा प्रमाण है। पूरे परिदृश्य में असल टकराव सामने आता है, महिलाओं का भरोसा और युवाओं का गुस्सा। महिलाएं नीतीश के मॉडल को स्थिरता के रूप में देखती हैं, जबकि युवा वर्ग बदलाव और नौकरी की उम्मीद तेजस्वी में ढूंढ रहा है। इन दोनों के बीच जातीय गोलबंदी की अदृश्य दीवारें दोनों गठबंधनों के लिए अवसर भी पैदा करती हैं और खतरा भी।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 10, 2025, 06:09 IST
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