पश्चिम एशिया संकट: क्या युद्धविराम से शांति कायम होगी? इस्राइल-गाजा युद्ध विराम से राहत, अभी भी कई बाधाएं बाकी

किसी राष्ट्र या किसी भी धर्म का कोई भी हो, हर समझदार व्यक्ति को इस बात से राहत महसूस होनी चाहिए कि आखिरकार गाजा में युद्ध विराम हो गया। बचे हुए इस्राइली बंधकों को हमास ने रिहा कर दिया है। इस्राइली सेना ने फिलहाल युद्ध रोक दिया है, जिससे संकटग्रस्त और बर्बरता से पीड़ित फलस्तीनियों तक भोजन, दवाइयां और अन्य प्रकार की राहत पहुंच सकती है। लेकिन हर समझदार व्यक्ति जानता है कि यह युद्ध विराम एक बहुत ही छोटा कदम है। शांति और न्याय का मार्ग अभी भी कठिन है, जिसके लिए और कई बाधाओं को पार करना है। यह महज संयोग ही था कि युद्ध विराम से पहले वाले सप्ताह में मैं दो किताबें पढ़ रहा था, दोनों में इस बात को लेकर प्रमुख अंश थे कि गाजा में युद्ध विराम के बाद क्या हो सकता है। ये दोनों किताबें 1980 के पहले लिखी गई थीं, जिसमें इस्राइल और फलस्तीन के बीच का विवाद के बारे में महज एक पन्ने में लिखा गया है। इस विवाद के 40 से अधिक साल बीत जाने के बाद भी इस संघर्ष के बारे में किताब में जो कुछ भी कहा गया है, वह आज भी प्रासंगिक है। पहली पुस्तक दक्षिण अफ्रीकी स्वतंत्रता सेनानी जो स्लोवो की आत्मकथा है। स्लोवो लिथुआनिया में जन्मे यहूदी थे, जो 1930 के दशक में यूरोप में यहूदियों पर हो रहे उत्पीड़न की वजह से परिवार सहित दक्षिण अफ्रीका आ गए। उन्होंने वहीं रहते हुए श्वेत-शासन के खिलाफ संघर्ष में भाग लिया। 1960 के दशक में उन्हें निर्वासन में जाना पड़ा और रंगभेद की समाप्ति के बाद वे दक्षिण अफ्रीका लौटे तथा नेल्सन मंडेला की कैबिनेट में आवास मंत्री बने। कुछ समय बाद कैंसर से उनका निधन हो गया। स्लोवो की आत्मकथा दो विषयों पर केंद्रित है- कम्युनिस्ट पार्टी में उनकी सक्रियता और रंगभेद विरोधी आंदोलन और गोरों के शासन की दमनकारी नीतियां। लेकिन इन सबके पहले वे बताते हैं कि उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम चरण में इटली में सेवा की थी। युद्ध समाप्त होने के बाद वे कुछ महीनों तक यूरोप में रहे और फिर दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए बीच में फलस्तीन में ठहरे। एक यहूदी होने के नाते वे किब्बुत्ज यानी सामुदायिक जीवन के बारे में जानने चाहते थे। 1946 में तेल अवीव की यात्रा के दौरान एक किब्बुत्ज में अपने प्रवास का वर्णन करते हुए स्लोवो लिखते हैं- “यदि इसे अलग से देखा जाए तो यह समाजवादी जीवनशैली का सुंदर उदाहरण लगता था। वहां अधिकतर वे युवक-युवतियां थे, जिनके माता-पिता पश्चिमी देशों में संपन्न यहूदी व्यापारी थे। वे आदर्शवाद और मानवता की भावना से प्रेरित थे—उन्हें विश्वास था कि केवल इच्छा-शक्ति और मानवता के बल पर आप एक फैक्ट्री या एक किब्बुत्ज में समाजवाद स्थापित कर सकते हैं।” स्लोवो आगे लिखते हैं- “ध्यान से देखने पर स्पष्ट हुआ कि इन सभी किब्बुत्जों में प्रमुख विचार यह था कि बाइबिल के अनुसार, फलस्तीन की भूमि हासिल करने के लिए हर यहूदी को लड़ना चाहिए और यदि ऐसा करने के लिए पांच हजार वर्षों से वहां रह रहे लाखों लोगों को उजाड़ना भी पड़े तो कोई बात नहीं।" स्लोवो ने 1980 के दशक में लिखी अपनी स्मृतियों में इस विचारधारा के परिणामों पर टिप्पणी करते हुए लिखा-“कुछ ही वर्षों में इस्राइली विस्तार और एकीकरण के युद्ध शुरू हो गए। विडंबना यह रही कि होलोकॉस्ट के भयावह अनुभवों को ही यहूदी राष्ट्रवादियों ने फलस्तीन के मूल निवासियों पर अपने उत्पीड़न और नरसंहार को जायज ठहराने का औजार बना लिया।” दूसरी किताब जो मैं पढ़ रहा था, वह मेक्सिको के मशहूर लेखक ओक्तावियो पाज का निबंध संग्रह वन अर्थ, फोर ऑर फाइन वर्ल्ड था। पाज नोबेल पुरस्कार विजेता होने के साथ भारत में मेक्सिको के राजदूत भी रहे थे। 1983 में प्रकाशित इस पुस्तक में उन्होंने अमेरिका, लैटिन अमेरिका, भारत और मध्य-पूर्व के राजनीतिक-सांस्कृतिक विषयों पर गहन विचार किए हैं। पाज का मत था कि फलस्तीनी नेताओं की कट्टरता का दूसरा पहलू इस्राइली हठधर्मिता थी। वे लिखते हैं, “यहूदियों और अरबों दोनों की जड़ें एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। जब वे पहले सह अस्तित्व में रह सकते थे, तो अब क्यों एक-दूसरे को मार रहे हैं यह संघर्ष ऐसा है, जिसमें जिद आत्मघाती अंधता में बदल चुकी है। कोई भी पक्ष निर्णायक विजय नहीं पा सकता, दोनों को एक-दूसरे के साथ रहना ही होगा।” जब पाज यह लिख रहे थे, तब शायद ही कोई दो-राष्ट्र समाधान की बात करता था। इस्राइल 1967 में कब्जा की गई भूमि छोड़ने को तैयार नहीं था और फलस्तीनी संगठन पीएलओ भी इस्राइल के अस्तित्व को मान्यता देने को राजी नहीं थे। इसे पाज की दूरदर्शिता ही कहा जाएगा कि उन्होंने कहा- “इस भयानक संघर्ष का समाधान सैन्य नहीं, बल्कि राजनीतिक होना चाहिए, जो न्याय और शांति दोनों की गारंटी दे सके और वह सिद्धांत कहता है कि फलस्तीनियों को भी उसी तरह मातृभूमि का अधिकार है, जैसा यहूदियों को है। पाज की इस भविष्यवाणी के लगभग एक दशक बाद 1993 में ओस्लो समझौते हुए, जिनमें पीएलओ ने इस्राइल के अस्तित्व को मान्यता दी और इस्राइल ने फलस्तीनी राज्य के गठन को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया। लेकिन बीते तीस वर्षों में इस्राइल राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य रूप से मजबूत होता गया, जबकि फलस्तीनियों का स्वतंत्र राष्ट्र का सपना हर कदम पर कुचला गया। इस्राइल और फलस्तीन के शांति प्रयासों को बड़ा झटका तब लगा, जब इसके मुख्य नायक इस्राइल के प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन की एक यहूदी उग्रवादी द्वारा हत्या कर दी गई। इसके बाद वेस्ट बैंक पर फलस्तीनी जमीन पर यहूदी बस्तियों का विस्तार होता गया और जो भी लोग वहां बसे, उन्हें इस्राइली सेना का पूर्ण समर्थन मिला। पश्चिमी तट और गाजा का भौगोलिक रूप से अलग-अलग होना पहले ही राज्य गठन में बाधा था; वहां बसने वाली यहूदी बस्तियों ने इसे लगभग नामुमकिन बना दिया। अब वेस्ट बैंक दो हिस्सों में बंटा हुआ है - एक तरफ संरक्षित और सुविधाभोगी यहूदी क्षेत्र और दूसरी ओर उत्पीड़ित तथा सीमित अधिकारों वाले फलस्तीनी क्षेत्र। यह स्थिति दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी दौर से तुलना योग्य बन गई है। यहूदी-फलस्तीनी संघर्ष पर जो स्लोवो के विचार अत्यंत दूरदर्शी थे; और शायद उनसे भी अधिक प्रासंगिक पाज के विचार हैं। अगर आज पाज जीवित होते, तो वे यह जरूर स्वीकार करते कि हमास की हिंसा, अंधभक्ति और निर्दयता पहले के फलस्तीनी समूहों से भी अधिक भयावह है। वे इस्राइली सेना की क्रूर हठधर्मिता को न तो उचित ठहराते हैं और न ही उसकी व्याख्या करते हैं या फलस्तीनियों की अपने ही देश में वैधता को अमान्य नहीं करते हैं। अपनी पुस्तक में पाज लिखते हैं- “द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आंद्रे ब्रेतों ने लिखा था, दुनिया यहूदी लोगों की ऋणी है, उसे उसकी क्षतिपूर्ति करनी चाहिए। मैंने ये शब्द पढ़ते ही अपने हृदय में उतार लिए, लेकिन चालीस वर्ष बाद मैं कहता हूं- अब इस्राइल फलस्तीनियों का ऋणी है, उसे उसकी क्षतिपूर्ति करनी चाहिए।” आज 2025 में भी मैं पाज की इस बात से पूर्ण सहमत हूं, लेकिन दो संशोधनों के साथ। पहला-होलोकॉस्ट के बाद, यह दुनिया नहीं, बल्कि विशेष रूप से पश्चिमी और पूर्वी यूरोप के देश थे जो यहूदियों के प्रति प्रायश्चित के ऋणी थे। और दूसरा- आज यह पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है कि केवल इस्राइल ही नहीं, बल्कि वे देश भी फलस्तीनियों के प्रति क्षतिपूर्ति के पात्र हैं, जिन्होंने इस्राइल की विस्तारवादी और उपनिवेशवादी नीतियों को खुला समर्थन दिया है- जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और सबसे बढ़कर संयुक्त राज्य अमेरिका।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Oct 19, 2025, 05:00 IST
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