सियासत: वाम और दक्षिण में उलझा यूरोप, आप्रवासन पर द्वंद्व के हालात
वैचारिक और तकनीकी विकास के अर्थों में आज के यूरोप को देखने की कोशिश करते समय न जाने वह यूरोप क्यों नहीं दिखता, जो पुनर्जागरण के उस बुद्धिमत्तावाद से निर्मित हुआ था, जिसमें एक नए मानव(न्यू मैन) और एक नई दुनिया (न्यू वर्ल्ड) की खोज की ताकत थी। शायद उसी के दम पर उसने पूरी दुनिया पर कई सदियों तक शासन किया। लेकिन अब वही यूरोप द्वंद्वों का शिकार दिख रहा है। उसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में नई प्रतिस्पर्धा की महत्वाकांक्षा तो दिख रही है, लेकिन वह फार राइट (दक्षिणपंथ) और सेंटर लेफ्ट (मध्य मार्ग) के संघर्ष में उलझ गया है। सच में यह विचार करने का समय है कि उस कालखंड में जब बद्दुओं के (प्राचीन संदर्भों में अरब) देश दुनिया के टैलेंट को आकर्षित करने के लिए टैलेंट अट्रैक्शंस एंड रिटेंशन जैसे मंत्रालयों का गठन कर रहे हैं, तब यूरोप के देश प्रवासन पर लेफ्ट-राइट कर रहे हैं। यूरोप से प्रकाशित एक अखबार को पढ़ते समय एक संदर्भ में आयरिश लेखक डब्ल्यू बी यीट्स की पुस्तक द सेकंड कमिंग की उन पंक्तियों का जिक्र मिला, जिनमें आज भी यूरोप के विश्लेषक सूत्र खोजने की कोशिश कर रहे हैं, विशेषकर तब, जब वहां कोई राजनीतिक संकट उभर कर सामने आता है। इसके साथ ही, उनकी कविता की एक पंक्ति और लिखी थी, जिसमें कहा गया है-सबसे अच्छे लोग अपने विश्वास को खो चुके हैं और सबसे बुरे लोग पूरी ऊर्जा से भरे हुए हैं। तो क्या सच में आज के यूरोप की राजनीति का यही हाल है यह बात तब भी खटकी थी, जब पूरे यूरोप में फार राइट यानी दक्षिणपंथ की बयार तेज थी, लेकिन ब्रिटेन के नव उद्योगवादी और नव बाजारवादी कंजर्वेटिव समाजवाद के थपेड़ों को झेल नहीं पाए थे। यह तो सभी ने देखा ही होगा कि जिस ब्रिटेन के लोग कुछ साल पहले तक सेंटर लेफ्ट लेबर पार्टी के क्वासी नेशनलिस्ट और क्वासी लिबरल एप्रोच को खारिज कर रहे थे, वही आखिर में कंजर्वेटिव्स के राष्ट्रवाद से मुंह मोड़ लिए, आखिर क्यों वे ठीक 180 डिग्री कैसे घूम गए यही सवाल अब नीदरलैंड को देखकर भी किया जा रहा है, जहां मतदाताओं ने, जो मुख्यधारा के दलों से निराश और क्रोधित थे, उन उम्मीदवारों की ओर रुख किया, जो सिस्टम-विरोधी छवि पेश करते हैं, जिसके कारण अतिवादी शक्तियां वोट बटोर ले जाती हैं। लेकिन जब फार राइट्स (दक्षिणपंथी) वाले दल सत्ता में आए, तो जनता कुछ ही दिनों में उनसे दूर होने लगी। इस मोहभंग का असल कारण क्या है सेंटर लेफ्ट (वाम मार्गी) का लंबा अनुभव और वृहत आधार, अथवा कुछ और आखिर वे फिर से सेंटर लेफ्ट की ओर क्यों लौटे ध्यान रहे कि नीदरलैंड में गीर्ट वाइल्डर्स के नेतृत्व वाली फ्रीडम पार्टी को 2023 में इसलिए अवसर मिला, क्योंकि डच जनता परंपरागत मध्यमार्गी (सेंटर लेफ्ट) राजनीति से थक चुकी थी। लेकिन वाइल्डर्स की पार्टी के पास वास्तविक समस्याओं-जैसे अाप्रवासन और आवास संकट, का कोई ठोस समाधान नहीं था। परिणाम यह हुआ कि डच मतदाता रॉब जेटेन जैसे युवा की डेमोक्रेटिक 66 (डी 66) की ओर मुड़ गए। रॉब जेटेन ने गीर्ट वाइल्डर्स की उस राजनीति को भी प्रभावी चुनौती दे दी, जो आप्रवासन और इस्लाम-विरोध पर टिकी थी। ऐसा क्यों हुआ क्या आप्रवासन यूरोप के लिए कोई प्रभावी या चिंताजनक विषय नहीं है काफी समय पहले मेनहाइम (जर्मनी) से प्रकाशित होने वाले दैनिक मेनहाइमर मॉर्गन ने लिखा था-जर्मनी और यूरोप में बड़े पैमाने पर हो रहा आप्रवासन सिर्फ राष्ट्रीय समस्या नहीं है, बल्कि यूरोप में लोगों की एकजुटता को भी खतरे में डाल रहा है। तो यह प्रश्न भी उठा कि यह संकट वास्तविक है या फिर महज एक फोबिया है यूरोप के कुछ उदाहरण बताते हैं कि फोबिया और चिंता के बीच एक बड़ा फासला है। 2015 में शार्ली हेब्दो के दफ्तर में कत्लेआम किसी फोबिया का उदाहरण पेश नहीं करता और न ही सैमुअल पैटी का सिर कलम। विएना के आतंकी हमले और यूरोप के अन्य भागों में हो रही ऐसी घटनाएं, फोबिया नहीं हो सकतीं, बल्कि यूरोपीय मन पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाली घटनाएं हैं। संभवतः, यूरोप में फार राइट का उभार इसी की देन है। ध्यान रहे कि पोप बेनेडिक्ट 16वें ने काफी पहले जर्मनी के एक विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए कहा था कि यूरोप अपने भविष्य में आस्था खो रहा है, क्योंकि वह खुद को इतिहास से मिटाने के रास्ते पर चल पड़ा है। लेकिन कब से उससे कुछ पहले से या बहुत पहले से जिस चिंता से पोप बेनेडिक्ट 16वें ग्रस्त थे, वही चिंता कभी डोनाल्ड ट्रंप व्यक्त करते दिखे, तो कभी इमैनुएल मैक्रों या अन्य यूरोपीय नेता। लेकिन हुआ क्या आखिर पूरे यूरोप और अमेरिका में फार राइट्स प्रायः व्यक्तिवादी क्यों दिखाई देते हैं पर्सनालिटी कल्ट उनके लिए प्रमुख क्यों है यह उनकी ताकत है या उनकी कमजोरी का प्रतीक क्या अभी तक वे उस विचार का विकल्प तलाश पाए हैं, जिसने यूरोप से लेकर यूरोपीय यूनियन तक का निर्माण किया हालांकि, यह बात हंगरी के ओर्बन, पोलैंड के डूडा, इटली की मेलोनी और नीदरलैंड के वाइल्डर्स के विषय में अलग तरह से कह सकते हैं, क्योंकि ये सभी चाहते हैं कि यूरोप अपने मूल में ईसाई बने, लेकिन उसके मानदंड और नियम सभी के लिए एकसमान हों। परंतु कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, कैल्विनवादी, लूथेरियन, ऑर्थोडॉक्स आदि के अंदर मौजूद द्वंद्व उन्हें सभ्यतागत एकता से दूर ले जाते हैं। मतदाताओं द्वारा उन्हें चुनने और कुछ समय बाद ठुकराने का कारण शायद यही है। इसका एक कारण शायद यह भी है कि एक संस्थान के रूप में यूरोपीय संघ पर अभी सेंटर लेफ्ट का प्रभाव बना हुआ है और वह एक ऐसे संविधानेत्तर संगठन के रूप में काम कर रहा है, जो किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है। फिलहाल यूरोपीय राजनीति में फार राइट फिर सेंटर लेफ्ट और फिर.का सिलसिला एक पैटर्न बनता दिख रहा है, कारण कुछ भी हों। नीदरलैंड, ऑस्ट्रिया, पोलैंड, इटली, हंगरी और स्लोवाकिया जैसे देश इन्हीं लहरों के सहारे आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन वहां अभी किसी अपराजेय संयोजन की संभावना पूरी होती नहीं दिखी। [email protected]
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 20, 2025, 05:56 IST
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