नजरिया: इतिहास के पन्नों में भारत-अमेरिका और मार्टिन लूथर किंग के भारतीय प्रतीक

पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एक ऐसी शख्सियत रहे, जिनकी प्रशंसा भी खूब हुई और आलोचना भी। हाल ही में वह एक बार फिर तब चर्चा में आए, जब एक अमेरिकी हस्ती ने उनके नाम और शब्दों का जिक्र किया। इस वक्त यह याद करना भी महत्वपूर्ण है कि अमेरिकी नागरिक अधिकार कार्यकर्ता डॉ. मार्टिन लूथर किंग, जवाहरलाल नेहरू के बारे में क्या सोचते थे मार्टिन लूथर किंग ने 1950 के दशक में अपनी पीएचडी के दौरान महात्मा गांधी और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर लिखी गई किताबों का अध्ययन किया था। पुस्तकों के जरिये उन्होंने गांधी और उनके चुने गए उत्तराधिकारियों के काम को जाना। उनके ज्ञान और लेखन को देखकर ऐसा लगता है कि उन्होंने नेहरू की आत्मकथा भी पढ़ी थी। डॉ. किंग ने करीब 30 साल की उम्र में भारत के प्रधानमंत्री को अपनी किताब 'स्ट्राइड टूवार्ड फ्रीडम' की एक प्रति भेजी थी। यह पुस्तक नागरिक अधिकार आंदोलन की एक ऐतिहासिक घटना 'मॉन्टगोमेरी बस बायकॉट' पर केंद्रित थी। दिल्ली भेजी गई उस कॉपी पर संदेश लिखा था, 'आपकी सच्ची सद्भावना, संघर्ष, व्यापक मानवीय दृष्टिकोण से मॉन्टगोमरी के 50 हजार अश्वेत नागरिकों को मिली प्रेरणा के प्रति कृतज्ञता स्वरूप।' नेहरू ने किताब मिलने पर पत्र लिखकर इसका जवाब दिया- 'जिस कार्य को आप कर रहे हैं, मैं उसमें लंबे समय से दिलचस्पी रखता हूं। यह किताब मुझे उस विषय की गहरी समझ देगी। मुझे पता चला है कि आपके भारत आने की संभावना है। अगर ऐसा होता है तो मैं आपसे मिलना चाहूंगा।' यह बात सच थी कि डॉ. मार्टिन भारत आने वाले थे। उनकी यात्रा की व्यवस्था गांधी के पुराने सहयोगी काका कालेलकर और राजकुमारी अमृत कौर ने की थी। मार्टिन लूथर और उनकी पत्नी कोरेटा 10 फरवरी, 1959 को भारत आए। हवाई अड्डे पर उन्होंने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा, 'दोस्तो, मैं लंबे समय से आपके महान देश की यात्रा करना चाहता था। दूसरे देशों में मैं एक पर्यटक के रूप में जाता हूं, पर भारत एक तीर्थयात्री के तौर पर आया हूं। भारत मेरे लिए महात्मा गांधी का प्रतीक है। एक ऐसा असाधारण व्यक्तित्व, जो युगों तक जाना जाएगा। भारत मेरे लिए जवाहरलाल नेहरू का भी प्रतीक है। उनके विवेकपूर्ण नेतृत्व और बौद्धिकता को विश्व ने स्वीकार किया।' नेहरू ने मार्टिन लूथर किंग और उनकी पत्नी को 13 फरवरी को तीन मूर्ति भवन में रात्रि भोज पर आमंत्रित किया था। बोस्टन विश्वविद्यालय में जब मैं मार्टिन लूथर के पेपर पर काम कर रहा था तो मुझे एक टाइप किया हुआ नोट मिला। उसे मैं उसी तरह से यहां लिख रहा हूं दुनिया में अहिंसक सामाजिक परिवर्तन की वर्तमान स्थिति क्या है घरेलू समस्याओं के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में भारत के लोगों के कल्याण के लिए चल रहे संघर्ष में गांधीवाद कितना जीवंत और सामाजिक रूप से उपयोगी है इसमें कौन से संशोधन जरूरी हैं क्या यह औद्योगिकीकरण और राष्ट्रीय रक्षा के साथ टकराव है क्या लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला एक देश इतनी प्रगति कर सकता है कि उसके नागरिक लोकतंत्र छोड़कर साम्यवाद की तरफ न जाएं चीन या भारत अफ्रीका किस दिशा में जाएगा अमेरिका के अश्वेत और भारत के लोगों के बीच मित्रता को कैसे और मजबूत किया जा सकता है छात्र, प्रोफेसर और पत्रकारों के आदान-प्रदान द्वारा भारतीय नेताओं की अमेरिका यात्रा और अश्वेत नेताओं की भारत यात्रा द्वारा हालांकि इस नोट पर किसी के हस्ताक्षर नहीं थे, लेकिन यह तय है कि इसे डॉ. मार्टिन लूथर किंग ने लिखा था। नेहरू से जिस बातचीत की वह उम्मीद लगा रहे थे, दरअसल वह हो नहीं सकी। इसका कारण यह है कि उस डिनर में अन्य मेहमान भी थे। दोनों को निजी और खुलकर बातचीत करने का मौका नहीं मिला। किंग दंपती का तीन सप्ताह का दौरा दिल्ली से शुरू हुआ। वह कोलकाता (तब कलकत्ता), पटना, चेन्नई (तब मद्रास) और मुंबई (तब बंबई) गए। विद्वानों, कार्यकर्ताओं और समाजसेवकों के समूहों से बातचीत की। उन्होंने साबरमती और सेवाग्राम आश्रम जाकर महात्मा गांधी की स्मृति को नमन किया। वापसी से पहले दिल्ली में गांधी पीस फाउंडेशन के प्रमुख जी रामचंद्रन ने एक रात्रिभोज दिया और उसमें नेहरू को भी आमंत्रित किया। नेहरू ने उत्तर में लिखा कि वह उस दिन दिल्ली में नहीं होने की वजह से भोज में शामिल नहीं हो सकेंगे। अमेरिका लौटने पर कनाडा टीवी के कार्यक्रम 'फ्रंट पेज चैलेंज' को दिए इंटरव्यू में जब मार्टिन लूथर से पूछा गया कि वह खुद को गांधी का कितना ऋणी मानते हैं तो इसके उत्तर में किंग ने कहा, 'यीशू मसीह और गांधी उन्हें गहराई से प्रेरित करते हैं। प्रेम और अहिंसा मानव गरिमा के लिए किसी भी संघर्ष के मार्गदर्शक के आदर्श होने चाहिए।' इसके बाद पत्रकारों ने पूछा कि क्या नेहरू भी अहिंसा को मानने वाले व्यक्ति हैं इसके जवाब में किंग ने कहा, 'नेहरू मानते थे कि स्वतंत्रता संग्राम में हिंसा नैतिक और व्यावहारिक, दोनों दृष्टियों से अनुचित है, लेकिन फिर भी दोनों की सोच में अंतर था। गांधी हर परिस्थिति में पूर्ण अहिंसा में विश्वास रखते थे, जबकि नेहरू का मानना था कि आंतरिक सामाजिक परिस्थितियों में अहिंसा उपयुक्त है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय संघर्षों की स्थिति में राष्ट्र को अपनी सेना मजबूत बनाए रखनी चाहिए।' अब मैं उस बातचीत पर लौटता हूं, जो हो न सकी। बातचीत के लिए तैयार किए गए प्रश्न किंग के नैतिक और राजनीतिक चिंतन को दिखाते हैं। पहला प्रश्न था, अहिंसा में क्या संभावनाएं हैं, न केवल राष्ट्रों के अंदर सामाजिक संघर्षों को नियंत्रित करने में, बल्कि राष्ट्रों के बीच क्षेत्रीय विवादों को सुलझाने के साधन के रूप में दूसरा प्रश्न भारत के सामाजिक और आर्थिक विकास के संदर्भ में गांधीवादी आदर्शों की प्रासंगिकता के बारे में है तीसरा, व्यापक गरीबी को समाप्त करने के लिए एशिया और अफ्रीका के नए स्वतंत्र देशों के लिए कौन-सा राजनीतिक ढांचा अधिक उपयुक्त है- लोकतंत्र या अधिनायकवाद और चौथा, भारत के लोगों और अमेरिका के अश्वेत समुदाय के बीच मित्रता के बंधन कैसे मजबूत किए जा सकते हैं ये सभी प्रश्न 1959 में जितना महत्व रखते थे, उतना ही आज भी रखते हैं। 2025 में सामाजिक और राजनीतिक विवादों को सुलझाने में अहिंसा की भूमिका, लोकतंत्र और अधिनायकवाद के बीच टकराते दावे, विचारों की प्रासंगिकता तथा भारत-अमेरिका संबंधों का वर्तमान और भविष्य, ये सभी विषय उतनी ही गंभीर रुचि और महत्व के बने हुए हैं। अगर नेहरू और किंग के बीच इन विषयों पर विस्तार से बातचीत हुई होती तो वह युगों तक याद रखी जाती।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 16, 2025, 03:58 IST
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