सन्नाटे में जीवंत: रविवार की वह दोपहर... जहां बाकी सब सो रहे थे और जागती हुई बेचैन भटक रही थी मैं

मुझे 1960 के दशक के बचपन के रविवार की दोपहरें याद आ रही हैं, जब मेरा चंचल स्वभाव थकान से मुक्त हो चुका होता था। घर पर दोपहर के बचे हुए खाने को बाद के लिए पन्नी में लपेट दिया जाता था। मुझे फिर से वह अकेलापन महसूस होता है, जो मेरे दादा-दादी के, या मेरे अपने परिवार के सामान समेटकर घर की ओर निकल पड़ने के बाद छा जाता था। मुझे वे खामोश घंटे याद आते हैं, जब मेरे घर के बड़े लोग झपकी लेने के लिए लेट जाते थे। रविवार की शांति और सन्नाटे के घंटे मेरे जेहन में अब भी जीवंत हैं। यह दुख का कोई कारण नहीं था कि मुझे अपने हाल पर छोड़ दिया गया था। फिर भी मुझे ऐसा कोई समय याद नहीं आता, जो मुझे सूर्यास्त से ठीक पहले के रविवार के उन कुछ घंटों से अधिक सार्वभौमिक रूप से वंचित महसूस कराता हो, जब प्रकाश लंबी छायाओं में बदल जाता था, और छायाएं छिपे हुए दुखों का संकेत देती थीं। उन दिनों लोग अपने बच्चों का मनोरंजन करने, उनके खेलों की देखरेख करने, या उन्हें एक मनोरंजक गतिविधि से दूसरी गतिविधि में ले जाने के बारे में नहीं सोचते थे। स्कूल की दोपहरें आनंदमय होती थीं, घंटियों और बड़ों के दखल के बोझ से मुक्त। हम चीड़ की लकड़ियों से चमकती रोशनी में रोलर स्केट्स पर दौड़ लगाते थे। हम नाले में पैदल चलते थे, ढलती धूप में गर्म पानी ठंडा होने लगता था। हम बगैर सोचे-विचारे जंगल या पड़ोस में घूमते थे, केवल यह देखने के लिए कि कौन-सा आकर्षण सामने आ सकता है या कौन-से मित्र कुछ करने के लिए कोई नई योजना सुझा सकते हैं। अंधेरा घिरने के बाद रात का खाना होता था। खाने के बाद होमवर्क शुरू होता। लेकिन स्कूल के दिन दोपहर के समय हम मनोरंजन में व्यस्त रहते। वास्तव में रविवार की दोपहरें दिलचस्प होती थीं और क्यों न होतीं, इस जगमगाती दुनिया में इतनी आजादी जो मिलती थी! लेकिन मेरी यादों में रविवार की दोपहर का सूनापन पूरी तरह से छा गया है। मुझे नहीं पता कि बाकी बच्चे कहां रहते थे, या मेरा अपना भाई, जो मेरे बचपन का सबसे प्यारा साथी था, कैसे इन रविवार की यादों से दूर था। शायद वह भी झपकी ले रहा होगा, या खुद को किसी एकांत योजना में डुबोने की कोशिश कर रहा होगा। हो सकता है, मेरा भाई अब भी मेरे पास ही हो, जैसा कि वह लगभग हमेशा रहता था, और अब समय के साये में बस छिपा हुआ है। लगभग छह दशक पहले की कोई याद यकीन से परे होती है। फिर भी, मैं खुद को एक ऐसी जागती हुई बच्ची के रूप में याद करती रहती हूं, जहां बाकी सब सो रहे थे, और आसमान से बरसती और दुनिया की हर दरार में समाती रोशनी में वह बेचैनी में अकेली भटक रही थी। वह जगमगाती दुनिया मुझे आश्चर्य और एक उदासी से भर देती थी। उस गहरी उदासी के कुछ कारण थे, जो उस समय की मेरी समझ से कहीं ज्यादा गहरे थे। पक्षियों और कीड़ों की आबादी पहले ही तेजी से घट रही थी। हमारे समुद्र प्लास्टिक से भर रहे थे। हमारे जंगल कट रहे थे। नदियां सूख रही थीं। फिर भी हम हर चीज को, खुद को व अपनी पहुंच में आने वाले हर जीव को, जहर से भिगो रहे थे। मुझे तब इसका अंदाजा ही नहीं था। दशकों बाद ज्यादातर लोगों को अब भी यह बात पता नहीं है। हममें से जो लोग इस दुनिया में भटकते हैं, वे दुख से त्रस्त हैं। और यही बात इस ढलते मौसम के प्यारे अकेलेपन को एक अनोखा तोहफा बनाती है। मैं आभारी हूं कि उस पुरानी उदासी को उसी तरह महसूस करती हूं, जैसे बचपन में महसूस कर सकती थी। कसकर मुड़ी कलियों का साधारण-सा दुख, जो अभी तक खिलने से बहुत दूर है। चिड़ियों के गीत, तितलियां, आगे की ओर झुकी हुई छिपकली, धीमे-धीमे चलने वाले जमीनी कछुए और तेज आंखों वाली गिलहरी की साधारण अनुपस्थिति, जो बाज के उड़ने पर ठक-ठक की चेतावनी से सन्नाटे को तोड़ती है। रविवार की दोपहर के सन्नाटे को आज भी वैसा ही महसूस न करना नामुमकिन है, जैसा मैंने तब महसूस किया था। अब पक्षी ज्यादातर शांत रहते हैं, लेकिन मुझे पता चल जाता है कि बाज ने कब शिकार पकड़ लिया है, क्योंकि कम से कम गिलहरी अपने पड़ोसी की मौत पर विलाप तो करेगी ही, भले ही मैं बाज को कभी न देख पाऊं। शरद ऋतु में एक शांत रविवार की दोपहर को, शांत वृक्ष से आती हुई शोक की ध्वनि से अधिक एकाकीपन शायद ही किसी चीज में महसूस होता है। नवंबर में रात जल्दी हो जाती है, लेकिन ज्यादा शांत, लगभग बिना किसी गीत के। कई पौधे और जीव, जो तब दिखते थे, अब गायब हो गए हैं। झींगुर, जो अब पहले से भी कम हैं, ने अपने भाई-बहनों द्वारा छोड़े गए खालीपन को भरने के लिए अपनी आवाज नहीं बढ़ाई है, फिर भी सन्नाटा इतना गहरा है कि उनके गीत बढ़ते हुए प्रतीत होते हैं। मैं उन्हें घर के अंदर से, खिड़कियां बंद होने पर भी सुन सकती हूं। भूरे रंग के मार्पोरेटेड स्टिंक बग अभी तक आई नहीं हैं, वे ठंड से बचने के लिए घर के अंदर घुसने की कोशिश करती रहती हैं। जब वे उड़ती हैं, तो इस तरह भिनभिनाती हैं कि मुझे लगता है कि घर में कोई लाल ततैया है। रानी ततैया भी आश्रय की तलाश में है, लेकिन वह ठंड के महीने अनजान जगहों पर बिताएगी। मेरे पॉलिनेटर बेड्स में कुछ मधुमक्खियां बची हैं, लेकिन आखिरी हमिंग बर्ड छह अक्तूबर को या उसके अगले दिन बहुत सुबह हमारे आंगन से चली गई। मैं हर साल उनके जाने का इंतजार करती हूं, लेकिन उन्हें जाते हुए देख नहीं पाती। जब मुझे उनकी याद आती है, तभी मुझे पता चलता है कि वे चली गई हैं। यहां तक कि प्रवासी पक्षी भी, जो यहां से गुजर रहे थे, बहुत पहले ही चले गए हैं। देर से आने वाले पक्षी, चाहे तितली हो या कोई अन्य पक्षी, मेरे परागण क्यारियों के फूलों में से बहुत कम ही चुन पाएंगे, क्योंकि बगीचा अब बालसम और एस्टर के फूलों के अलावा कुछ विशिष्ट मौसमी पुष्पों तक सिमट गया है। सूरजमुखी के के फूल, जो एक महीने पहले तक खिले हुए थे, भूरे पड़ कर गिर गए हैं, लेकिन अब उनमें बीज हो गए हैं। नवंबर के एकाकी, सुनहरे रविवार की दोपहरों में मुझे उन बीजों पर पूरा भरोसा है। मुझे प्रकृति के बदलाव के नियम पर भरोसा है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 16, 2025, 03:54 IST
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