Supreme Court: 'राज्यपाल वर्षों तक मंजूरी ना दें तो क्या अदालतें शक्तिहीन हो जाएंगी', कोर्ट ने दोहराई चिंता
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर अपनी चिंता दोहराई कि अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल निर्वाचित राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों को अनिश्चित काल के लिए मंजूरी देने से रोकते हैं, तो क्या अदालतें शक्तिहीन हो जाएंगी। सीजेआई जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर की पीठ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा शीर्ष अदालत को दिए गए एक संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी। मध्य प्रदेश सरकार के वकील नीरज किशन कौल ने जवाब दिया कि ऐसे मामलों का निर्णय संसद पर छोड़ देना ही बेहतर है। ऐसी चर्चाओं का प्रारंभिक बिंदु इस धारणा पर आधारित नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रपति या राज्यपालों को दी गई विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग होगा। मंगलवार को बहस करने वाले महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, गोवा, छत्तीसगढ़ और हरियाणा राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों ने भी कौल के इस विचार का समर्थन किया कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामलों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपालों पर समय सीमा नहीं लगानी चाहिए। ये भी पढ़ें:ट्रंप की टैरिफ नीति:डिजिटल टैक्स लगाने वालों पर गिरेगी गाज; मनोवैज्ञानिकों ने जताया दिमागी बीमारी का अंदेशा कौल ने विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में संविधान की ओर से राज्यपाल और राष्ट्रपति को दिए गए विवेकाधिकार पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि जहां तक समय-सीमा का सवाल है, यह कहना असंभव है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति को इस समय-सीमा के भीतर निर्णय लेना होगा। जहां किसी निश्चित कार्रवाई के लिए कोई न्यायोचित मानक नहीं हैं, वहां वह न्यायिक प्रक्रिया के दायरे में नहीं आएगी। उन्होंने आगे कहा कि न्यायालय समय-सीमा निर्धारित करके प्रक्रिया को न्यायपालिका की ओर से समीक्षा योग्य नहीं बना सकता। सीजेआई जस्टिस गवई ने इस पर पूछा कि जब राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों ने किसी विधेयक को पारित कर दिया है, तो राज्यपाल को अनिश्चित काल तक उस पर रोक क्यों लगाई जानी चाहिए जवाब में कौल ने कहा कि इस मुद्दे को संसद को तय किए जाने देना ही बेहतर है। अनुच्छेद 201 की भाषा ऐसी किसी समय सीमा को स्वीकार नहीं करती : हरीश साल्वे महाराष्ट्र सरकार की ओर से हरीश साल्वे ने तर्क दिया कि संविधान निर्माताओं ने एक ऐसी व्यवस्था बनाई है जिसमें केंद्र सरकार राज्य विधानसभा से पारित किसी विधेयक को कानून बनने से रोक सकती है। हालांकि उन्होंने कहा कि यह उच्चतर विवेकाधिकार का मामला है। उन्होंने आगे कहा कि अनुच्छेद 201 की भाषा ऐसी किसी सीमा को स्वीकार नहीं करती। इस पर सीजेआई ने पूछा कि क्या केंद्र सरकार इस शक्ति का उपयोग तब भी कर सकती है जब विधेयक सूची-2 (राज्य सूची) के अंतर्गत आता हो। साल्वे ने कहा हां। इस पर सीजेआई ने आंबेडकर के भाषण का हवाला दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार आपात स्थिति को छोड़कर अपने निर्धारित क्षेत्रों में काम करेगी। साल्वे ने यह भी कहा कि राज्यपाल केंद्र और राज्यों के बीच संवाद का माध्यम हैं। न्यायालय शक्तियों का निर्धारण कर सकता है लेकिन किसी उच्च-सांविधानिक शक्ति के उसकी शक्ति के उपयोग की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती। क्या राज्यपाल धन विधेयक भी रोक सकते : जस्टिस नरसिम्हा जस्टिस नरसिम्हा ने कहा, यदि राज्यपाल किसी विधेयक को पारित होने से रोक सकते हैं, तो वे धन विधेयक को भी रोक सकते हैं। साल्वे ने कहा कि राज्यपाल ऐसा कर सकते हैं। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यह प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि धन विधेयक अनुच्छेद 207 के तहत राज्यपाल की सिफारिश से पेश किया जाता है। साल्वे ने यह भी तर्क दिया कि विधेयक पारित होने के बाद यह धारणा बिल्कुल गलत है कि उसे राज्यपाल की अनुमति जरूर मिलनी चाहिए। ये भी पढ़ें:Seat Ka Samikaran:हिसुआ सीट पर अब तक नहीं मिली राजद और जदयू को जीत, कांग्रेस-भाजपा का ऐसा रहा दबदबा यूपी ने कहा, राष्ट्रपति व राज्यपाल को पूर्ण कार्यात्मक स्वायत्तता प्राप्त उत्तर प्रदेश और ओडिशा राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे एडिशनल सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को पूर्ण कार्यात्मक स्वायत्तता प्राप्त है। गोवा सरकार की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल विक्रमजीत बनर्जी ने कहा कि न्यायपालिका ऐसी स्थिति में नहीं रह सकती जहां वह विधेयकों को मान्य सहमति दे सके। वहीं छत्तीसगढ़ के वकील महेश जेठमलानी ने तर्क दिया कि राज्यपालों के लिए समय-सीमा निर्धारित करना लगभग अपमानजनक है। अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाएं स्वीकृति रोके जाने के विरुद्ध कोई उपाय नहीं है। राजस्थान का तर्कराज्यपाल शुरु में ही सहमति रोक सकते राजस्थान सरकार की ओर से पेश अधिवक्ता मनिंदर सिंह ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने भी यह परिकल्पना की थी कि राज्यपाल शुरुआत में ही सहमति रोक सकते हैं। सिंह ने यह भी तर्क दिया कि अनुच्छेद 200 के तहत सहमति को एक विधायी कार्य माना गया है। राज्यपाल विधायी प्रक्रिया का हिस्सा हैं। इसलिए उन्हें परमादेश जारी करने का कोई अधिकार नहीं है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 27, 2025, 06:48 IST
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