समाज: त्योहार, खरीदारी और गाड़ियों की कतार से इतर भी कई जगह लगा है 'लंबा जाम'
हम दीपावली से कुछ ही दूर हैं, लेकिन क्या उस ट्रैफिक जाम से दूर हो पाएंगे, जो त्योहारी मौसम में मानो उपभोक्ताओं को मुफ्त में मिलता है। गाड़ियों की लंबी कतारें, मानो जो अनंत तक एक सीध में खिंचती चली जाती हैं और पेट्रोल-डीजल के धुएं से खूबसूरत वादियों को ग्रहण लगाती रहती हैं। आज के दौर में हम किसी भी शहर की गति को ट्रैफिक जाम ही तो कहते हैं। सामान्य तौर पर बड़े शहरों में एयरपोर्ट के लिए दो से तीन घंटे पहले पहुंचना होता है, लेकिन कोई शहर अपने ऑफिस ऑवर में कुछ और पहले निकलने की सलाह देता है। अगर वह शहर बंगलूरू है, तो सिलिकॉन वैली की कहानियों से ज्यादा उस यात्री को ट्रैफिक की आवाज कुछ ज्यादा सुनने को मिलती है और यह भी कि मुंबई और दिल्ली से भी यहां घना ट्रैफिक जाम लगता है, और अधिकांश समय सड़कों और उन पहियों पर ही बीत जाता है। लेकिन हाल ही में हुई अनवरत बारिश ने मानो ट्रैफिक जाम की कहानी और मुश्किल बना दी थी। गुरुग्राम, दिल्ली और करीब पूरे एनसीआर में ट्रैफिक थम-सा गया। और तो और छोटे शहरों में भी कुछ ऐसा ही हाल नजर आया, क्योंकि उस ट्रैफिक के हिस्से ढेर सारी बड़ी गाड़ियां आ गईं; जिनको चलाता कोई एक व्यक्ति है और बाकी खाली सीटों को संभाले वे रेंगते पहिये सड़क के उस स्थान को भी घेरते हैं, जो शायद किसी छोटी गाड़ी या मोटरसाइकल वाले के हिस्से में जाता, क्योंकि उस मालिक या चालक को यकीन होने लगता है कि बड़ी गाड़ियों से किरदार भी बड़ा हो जाता है और बड़ा हो जाता है वह कागजी सम्मान भी, जो उस कार के मार्फत उन तक पहुंचता है और बढ़ जाती है वह ऐंठ भी जो उन छोटी गाड़ियों की हताश नजरों से उन तक पहुंचती है। तो फिर क्या लोग गाड़ी नहीं खरीदें अपनी कार से ऑफिस न जाएं बिल्कुल खरीदें और ऑटो कंपनियों को इन्हें बेचने का बाजार भी तो नजर आता है। हम बड़ी गाड़ी खरीदें, एसयूवी लेकर सड़क पर चलें, लेकिन उस ब्रांड वैल्यू और उपभोक्तावाद को लेकर न चलें, जो हमें यह मानने नहीं देता कि इस ट्रैफिक जाम में हमारी उस बड़ी गाड़ी और दिखावे की मानसिकता की भी एक भूमिका है। चूंकि, अपने देश का पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम उतना व्यापक नहीं है कि सबकी यात्रा का ख्याल रख सके, लेकिन मुंबई की एक बड़ी आबादी लोकल ट्रेन से चलती है और दिल्ली में भी मेट्रो से। लेकिन जब आप सड़कों पर गाड़ियों का जखीरा देखेंगे और खासकर उन एसयूवी को, तो आप सोच में पड़ जाएंगे कि आखिर इतनी बड़ी गाड़ी में सिर्फ एक व्यक्ति को आने की क्या जरूरत थी सामान्य ढंग से सोचें, तो अगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट बहुत अच्छा हो, तो एक बस में करीब चालीस से पचास लोग बैठ सकते हैं और वे चालीस-पचास लोग अगर अलग-अलग कारों से सड़क पर आ जाते हैं, तो फिर ट्रैफिक जाम की समस्या तो बढ़ेगी ही। अगर उनमें से हर चार छोटी गाड़ी के साथ एक एसयूवी या बड़ी गाड़ी आ रही है, तो फिर क्या होगा लेकिन यह हो रहा है और शहर के एकल परिवारों में दो या तीन गाड़ियां, तो आम बात हो गई हैं। सभी के लिए कार जरूरत भी हो गई है और उनमें से कई को अपनी पहचान, अपनी जगह भी चाहिए, जिसको लेकर वह अकेले जा सके और उस कार से अपनी पहचान के होने का भी बोध करा सके। लोग किस प्रकार का वाहन चलाते हैं वाहन के प्रकार के चुनाव को प्रभावित करने में दृष्टिकोण और जीवनशैली की भूमिका रिसर्च पेपर में जो खास बात यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रोफेसरों ने अपने अध्ययन में पाई कि उपभोक्ताओं के यात्रा व्यवहार, व्यक्तित्व, जीवनशैली और गतिशीलता किसी वाहन के चुनाव को प्रभावित करती है। मारुति सुजुकी अत्यधिक प्रतिस्पर्धी एसयूवी क्षेत्र में अपनी उपस्थिति मजबूत करने पर काम कर रही है और अपने नए एसयूवी के लॉन्च के दौरान प्रबंध निदेशक हिसाशी ताकेउची ने यह माना कि मारुति सुजुकी, कंपनी अब एसयूवी सेगमेंट पर ज्यादा ध्यान दे रही है। उनके अनुसार, भारत में कारों की बिक्री में अब एसयूवी की हिस्सेदारी 55 फीसदी है। हालांकि, छोटी कारें उनके कारोबार का मुख्य आधार बनी रहेंगी, लेकिन एसयूवी सेगमेंट में बढ़ती उपस्थिति उनकी बाजार हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए जरूरी है। यानी कार बनाने वाली कंपनियां कार बनाती रहेंगी और वे गाड़ियां दोगुनी संख्या में खरीदी भी जाएंगी। उधर, सड़कें भी चार लेन से छह लेन में बदलती चली जाएंगी। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाइक या छोटी गाड़ी में बैठा वह परिवार बड़ी गाड़ियों की चकाचौंध और हौंक से कभी परेशान भी होता होगा और उस हीनता ग्रंथि में खुद भी उन एसयूवी को खरीदने की सोचता होगा, जिससे वह भी कुछ ज्यादा मान और उस जगह का हिस्सेदार बने, न कि ट्रैफिक जाम में अपनी भूमिका के बारे में संवेदनशीलता से सोचे। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि ट्रैफिक जाम की समस्या सिर्फ संरचनात्मक, कार्यात्मक, विनिर्माण, कार मॉडल्स की समस्या ही नहीं है, बल्कि उस श्रेष्ठ मानसिकता और व्यवहार की भी है, जिसको पहनकर कोई कार का मालिक स्टीयरिंग व्हील पर बैठता है। उस अंधी उपभोक्तावाद की दौड़ की भी है, जहां उत्पाद में रूह आ जाती है और वह व्यक्ति की तरह व्यवहार करने लगता है। और व्यक्ति, कुछ वस्तु माफिक। यह ट्रैफिक जाम हमें वारेन बफे, स्टीव जॉब्स और रतन टाटा के उस मितव्ययी दृष्टिकोण को जीवन यापन का आधार बनाने पर भी जोर देता है; जहां विलासिता और जरूरत में फर्क समझा जाता है और खरीदने की शक्ति से ज्यादा बस उस आवश्यकता को तरजीह दी जाती है। शायद यह मानसिकता हमें कुछ और संजीदा बनाएगी और आवश्यकता या जरूरत के अनुसार ही वस्तु के उपभोग की समझ भी देगी। और जब हम दीपावली में अपने-अपने हिस्से के गिफ्ट लिए घर लौटते हैं, तो पाते हैं कि घर में भी तो एक ट्रैफिक जाम है, कभी उन कपड़ों की अलमारियों में, कभी उन अनगिनत इकट्ठा होती वस्तुओं में और कभी उन हथेलियों में चिपकी उस इंटरनेट की दुनिया में। हवा में, जमीन पर और उन दिलों में भी शायद वह ट्रैफिक जाम ही है; जहां सभी एक-दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Oct 16, 2025, 07:05 IST
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