मतदाता सूची का कठोर सत्यापन जरूरी है: चुनाव आयोग की सांविधानिक जिम्मेदारी... सुप्रीम कोर्ट में याचिका दुरुपयोग

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले मतदाता सूची के सत्यापन और पुनरीक्षण पर मचे सियासी बवाल की धमक अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है। निर्वाचन आयोग के 24 जून के आदेश को मौलिक अधिकारों का हनन बताते हुए उसे रद्द करने के लिए याचिका दायर हुई है। ममता बनर्जी ने इसे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) से भी ज्यादा खतरनाक बताते हुए आरोप लगाया है कि अगले साल पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव इस अभियान का असली लक्ष्य है। गौरतलब है कि चुनाव आयोग की यह कार्रवाई संविधान के अनुच्छेद-326, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और निर्वाचन पंजीकरण नियमावली, 1960 के नियमों के अनुरूप हो रही है। वित्तीय धोखाधड़ी रोकने के लिए बैंक खातों और लॉकर्स का नियमित केवाईसी, साइबर फ्रॉड रोकने के लिए मोबाइल नंबरों का सत्यापन, अपराध रोकने के लिए किरायेदारों की जांच और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में घोटालों को रोकने के लिए डुप्लीकेट राशन कार्ड को रद्द करने की कार्रवाई का कोई विरोध नहीं होता। महाराष्ट्र में 40 लाख मतदाता बढ़ने पर चल रहे विवाद के बीच चुनाव आयोग ने बिहार के बाद सभी राज्यों में मतदाता सूची की गडबड़ियों को ठीक करने का फैसला लिया है। इसलिए संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर मतदाता सूची शुद्धिकरण का विशेष अभियान सभी राज्यों में सफलतापूर्वक चले, तो 2029 के लोकसभा चुनावों के पहले पूरे देश में मतदाता सूची दुरुस्त हो जाएगी। आजादी के बाद मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण अब तक नौ बार हो चुका है और आखिरी बार विशेष पुनरीक्षण 2003 में हुआ था। चुनाव आयोग के अनुसार, 22 साल पहले पुनरीक्षण की प्रक्रिया एक महीने में पूरी हुई थी। याचिका के अनुसार, करोड़ों लोगों के नाम मतदाता सूची से कट सकते हैं, लेकिन 7.89 करोड़ में से लगभग 4.96 करोड़ का नाम 2003 की मतदाता सूची में शामिल था, उन्हें गणना फॉर्म के साथ सिर्फ 2003 की मतदाता सूची में अपने नाम का विवरण बीएलओ को देना होगा। बकाया तीन करोड़ मतदाताओं में, जिनके माता-पिता का नाम 2003 के मतदाता सूची में है, उनके लिए भी आसान प्रकिया है। उसके बाद बचे मतदाताओं को गणना फॉर्म के साथ कोई दस्तावेज नहीं देना है, लेकिन 11 मान्य दस्तावेजों में से एक कागज देना होगा। इनमें सरकारी नौकरी या पेंशन, पासपोर्ट, मैट्रिक प्रमाण पत्र, निवास, वन अधिकार, जाति, पारिवारिक रजिस्टर, भूमि या मकान के स्वामित्व आदि के प्रमाण पत्र और दस्तावेज शामिल हैं। समस्या की असली जड़ को समझने के लिए साल-2022 में हुए जातीय सर्वे के साथ राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे और भारत मानव विकास सर्वे की रिपोर्ट के नवीनतम आंकड़ों को समझना जरूरी है। उनके अनुसार जन्म प्रमाण पत्र 2.8 फीसदी, पासपोर्ट 2.4 फीसदी, मैट्रिक प्रमाण पत्र 45 फीसदी, जाति प्रमाण पत्र 16 फीसदी और सरकारी नौकरी के प्रमाण पत्र सिर्फ 1.57 फीसदी लोगों के पास हैं। जन्म-प्रमाण पत्र के पंजीकरण के लिए साल-1969 में संसद ने कानून बनाया था, लेकिन बिहार में सिर्फ एक-चौथाई बच्चों का ही जन्म के बाद पंजीकरण हो रहा है। 2011 के सामाजिक-आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण इलाकों के 1.78 करोड़ परिवारों में से 65.58 फीसदी लोगों के पास भू-स्वामित्व नहीं है। इसलिए 11 दस्तावेजों के साथ आधार कार्ड, पैन कार्ड, राशन कार्ड, मनरेगा, जॉब कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस को मान्यता देने की मांग हो रही है। लेकिन दस्तावेजों में हो रहे फर्जीवाड़े की वजह से उन्हें नागरिकता की विधिक मान्यता मिलना मुश्किल है। इसकी वजह से मतदाताओं को समस्या झेलने के साथ चुनाव आयोग को भी अनुचित आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। दस्तावेजों की कमी की वजह से आधार या राशन कार्ड को मान्यता देना संविधान के साथ छल और लोकतंत्र के साथ धोखा होगा। खाद्य मंत्रालय की नवंबर, 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, 80 करोड़ लाभार्थियों में से लगभग 5.8 करोड़ के राशन कार्ड को फर्जीवाड़े की वजह से रद्द किया गया था। जन्मतिथि या जन्मस्थान के सत्यापन के बगैर जारी आधार कार्ड नागरिकता का दस्तावेज नहीं है। मतदाता सूची को आधार कार्ड से जोड़ने का विरोध हो रहा है, तो फिर आधार कार्ड को नागरिकता के दस्तावेज के तौर पर शामिल करने की मांग तर्कसंगत नहीं है। गौरतलब है कि संविधान के अनुसार, मतदाता सूची में नाम भारतीय नागरिकता का सबूत है, इस नाते इसकी कठोर पड़ताल जरूरी है। जिन मतदाताओं का नाम निधन के बाद भी मतदाता सूची में शामिल है, उनका नाम मतदाता सूची से हटना ही चाहिए। जो लोग बिहार से बाहर निवास करते हैं और उनका नाम दूसरे राज्य की मतदाता सूची में शामिल है, उनका नाम भी बिहार की मतदाता सूची से हटना चाहिए। सत्यापन प्रक्रिया में विदेशी लोगों की पहचान होने से राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत होगी। सत्यापन की इस प्रक्रिया में पार्टियों से जुड़े 1.56 लाख बूथ लेवल एजेंट (बीएलए) भी शामिल रहेंगे। नियमों के तहत प्रत्येक बीएलए रोजाना मतदाता सत्यापन के 50 आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। अगर सभी पार्टियों से जुड़े बीएलए लोकतंत्र के शुद्धिकरण के इस प्रयास में सहयोग करें, तो रोजाना 75 लाख आवेदन जमा होने पर यह प्रक्रिया 11 दिन में पूरी हो सकती है। मतदाता सूची को दुरुस्त रखना चुनाव आयोग की सांविधानिक जिम्मेदारी है। संदिग्ध लोगों का नाम मतदाता सूची से बाहर करने से पहले अधिकारियों को सुनवाई के बाद तर्कसंगत आदेश पारित करना होगा। मतदाता सूची से गलत तरीके से नाम कटने वाले पीड़ित व्यक्ति को अदालत में चुनौती देने का कानूनी अधिकार है, लेकिन मतदाता सूची के शुद्धिकरण की प्रक्रिया के खिलाफ सिर्फ आशंकाओं के आधार पर अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में याचिका सांविधानिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। संविधान में नागरिकता देने के लिए सख्त प्रावधान रखे गए हैं। इसलिए मतदाता सूची के सत्यापन में शिथिलता की मांग पर जोर देने से लोकतंत्र के साथ सांविधानिक व्यवस्था कमजोर होने के खतरे हैं।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Jul 07, 2025, 08:39 IST
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