मुद्दा: खतरनाक है पाकिस्तान का दोहरा रवैया, लड़ाने के दांव में जोखिम के सिवा कुछ भी नहीं
पाकिस्तान की विदेश नीति एक उच्च-दांव वाला जोखिम लगता है। एक तरफ उसका सदाबहार दोस्त चीन है, जिसने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में 70 अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है और उसकी अर्थव्यवस्था और रक्षा का मुख्य आधार बना हुआ है। दूसरी तरफ अमेरिका है, जो अब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की लेन-देन वाली विदेश नीति के तहत उसे फिर से लुभा रहा है। इस्लामाबाद दोनों शक्तिशाली देशों को संतुलित करने की अपनी क्षमता पर दांव लगा रहा है, जो जल्द ही अपने अंतर्विरोधों के चलते ध्वस्त हो सकता है। पाकिस्तान सार्वजनिक रूप से चीन और रूस के साथ मिलकर अमेरिकी क्षेत्रीय ठिकानों का विरोध करता है, निजी तौर पर वह वाशिंगटन को आर्थिक अवसरों का लालच देकर वित्तीय राहत और राजनीतिक वैधता की मांग करता है। यह दोतरफा कूटनीति पाकिस्तान के रणनीतिक विरोधाभास को उजागर करती है। वह अपने भूगोल का इस्तेमाल प्रतिद्वंद्वी शक्तियों से रियायतें हासिल करने के लिए कर रहा है। ट्रंप का पाकिस्तान के साथ नया जुड़ाव भरोसे पर नहीं, बल्कि कठोर वास्तविकता पर आधारित है। तालिबान और उससे जुड़े आतंकवादी नेटवर्कों को अफगानिस्तान में पुनः सक्रिय होने से रोकने के लिए अमेरिका को इस्लामाबाद से सीमित सहयोग की आवश्यकता है। उसे यह भी डर है कि दक्षिण एशिया में कहीं बीजिंग अपना पूरा प्रभाव न जमा ले, खासकर जबसे चीन के सीपीईसी प्रोजेक्ट और नौसेना महत्वाकांक्षाएं अरब सागर की ओर बढ़ रही हैं। इतिहास में यह अच्छी तरह दर्ज है कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में किस तरह अमेरिका के साथ विश्वासघात किया-तालिबान को गुप्त रूप से आश्रय देने से लेकर अपनी सेना के लिए अमेरिकी सहायता में हेराफेरी करने तक। ट्रंप उसी जाल में फंसने का जोखिम उठा रहे हैं, जिसमें पिछली अमेरिकी सरकारें फंसी थीं। भारत के लिए यह घटनाक्रम एक रणनीतिक झटका है। नई दिल्ली, जिसने पिछले साल वाशिंगटन के साथ दस वर्षीय रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, को उम्मीद थी कि अमेरिका अपने लोकतांत्रिक सहयोगी के प्रति (खासकर हिंद-प्रशांत सुरक्षा ढांचे के हिस्से के रूप में) लगातार झुकाव बनाए रखेगा। इसके बजाय, ट्रंप का पाकिस्तान के प्रति झुकाव अमेरिका-भारत साझेदारी की विश्वसनीयता को कमजोर करता है। यह दर्शाता है कि दीर्घकालिक रणनीतिक तालमेल के प्रति वाशिंगटन की प्रतिबद्धता अल्पकालिक सामरिक लाभों के आगे गौण हो सकती है। इसलिए भारत को जापान, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के साथ साझेदारियों को मजबूत करके खुद को अमेरिकी नीति के उतार-चढ़ाव से बचाना होगा। पाकिस्तान आर्थिक पतन के कगार पर है, आयात पर निर्भर है, कर्ज में डूबा है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए बेताब है। इस्लामाबाद अपनी खनिज संपदा, खासकर दुर्लभ मृदा तत्वों का मौद्रीकरण करने के लिए अमेरिका निवेशकों तक पहुंच रहा है। सैन्य प्रतिष्ठान इसे चीनी और पश्चिमी, दोनों पूंजी को आकर्षित करने का तरीका मानता है, भले ही इसका मतलब एक को दूसरे के खिलाफ खड़ा करना ही क्यों न हो। मगर यह अवसरवाद भारी कीमत वसूल सकता है। न तो वाशिंगटन और न ही बीजिंग अनिश्चित काल तक इस्तेमाल होना बर्दाश्त करेंगे। पाकिस्तान का भू-राजनीतिक खेल कोई रणनीति नहीं, बल्कि कूटनीति के रूप में छिपी हताशा है। बीजिंग और वाशिंगटन, दोनों को संतुष्ट करने की कोशिश में वह दोनों का विश्वास खो सकता है। उसकी लेन-देन वाली विदेश नीति अस्थायी राहत तो दे सकती है, पर स्थायी साझेदारी के लिए जरूरी विश्वसनीयता खो सकती है। भारत वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान के इस दोहरेपन को उजागर करने के लिए हर मौके का फायदा उठाएगा। दो हालिया घटनाक्रम पाकिस्तान के दोहरेपन को उजागर करते हैं। सबसे पहले, उसने अफगानिस्तान पर मॉस्को प्रारूप घोषणा का समर्थन किया, तथा चीन, रूस और ईरान के साथ मिलकर अफगानिस्तान में और उसके आसपास किसी भी नए विदेशी सैन्य अड्डे की स्थापना को खारिज कर दिया, जो बगराम एयरबेस पर अमेरिकी सैन्य उपस्थिति की ट्रंप की इच्छा का स्पष्ट खंडन था। तभी खबर आई कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख, फील्ड मार्शल आसिम मुनीर ने अमेरिकी अधिकारियों को प्रस्ताव दिया कि अमेरिकी निवेशक बलूचिस्तान में पासनी में एक नया वाणिज्यिक बंदरगाह विकसित और संचालित करें। चीन समर्थित ग्वादर बंदरगाह से बमुश्किल 70 मील की दूरी पर स्थित पासनी की पेशकश बीजिंग के प्रभुत्व का रणनीतिक प्रतिकार है। इस प्रकार, पाकिस्तान का दोहरा खेल रणनीतिक और नैतिक, दोनों ही दृष्टि से अस्थिर है। इस्लामाबाद जिसे, चतुर संतुलन कहता है, वह वास्तव में भू-राजनीतिक जुआ है। उसे न केवल सहयोगी, बल्कि अपनी स्थिरता भी खोनी पड़ सकती है। [email protected]
- Source: www.amarujala.com
- Published: Nov 17, 2025, 05:35 IST
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