यह भी एक दौर है: अराजकता की धुरी बन रहा अमेरिका... ध्वस्त हो रहीं साझेदारों के बारे में पुरानी धारणाएं
ट्रंप की नीतियां एक तरह से दुनिया में एक बार फिर उभरते अमेरिकी साम्राज्यवाद को ही इंगित करती हैं। इससे पूरब के देशों में बुद्धिजीवियों का भड़कना भी स्वाभाविक है, लेकिन अमेरिकी दादागीरी का ऐसा विरोध कोई नया नहीं है। यह उतना ही पुराना है जितना कि खुद अमेरिका। स्वतंत्रता अमेरिका का आधार-मूल्य रहा है, लेकिन आज जो स्थितियां बन रही हैं, वे स्वतंत्रता में निहित विचार को परोक्ष श्रद्धांजलि ही हैं, जो राष्ट्रीय हित की असंगत नैतिकता में डूबी दिख रही हैं। दरअसल, इतिहास गवाह है कि महाशक्ति अमेरिका का विकास (सैन्य शक्ति के प्रयोग से लेकर अनियमित बाजार तक फैला उसका आत्मविश्वास) वर्चस्व के बढ़ते मूल्य के समांतर ही चला है। यह 'प्रबुद्ध' यूरोप नहीं था, बल्कि एक नई दुनिया थी, जिसने पहली बार सपने देखने के अधिकार को वैश्वीकृत किया और जो सबसे पसंदीदा और सबसे विवादित गंतव्य भी बना। और अब भी है। याद रहे, जब यह सब हुआ, तो वह एक आदर्शवादी दौर था। उस दौर में अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को चुनौती देने की राष्ट्रीय इच्छाशक्ति ही थी, जिसमें अमेरिका ने स्वतंत्रता की व्यवस्था को बहाल करने को अपना कर्तव्य मान लिया, भले ही उसका मतलब चुने हुए अराजक तत्वों को संरक्षण देना हो। अमेरिका के इस उभार ने उसके विरोध को न केवल कथित तीसरी दुनिया (दूसरे विश्वयुद्ध के बाद औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त हुए देश) में, बल्कि व्यापक सामूहिक भावना में तब्दील कर दिया। वियतनाम युद्ध को कौन भूल सकता है इस युद्ध के दौरान भौगोलिक बाधाओं और राष्ट्रीय जिद के बावजूद अपना नैतिक दायित्व निभाते अमेरिकी तो खोये ही, इसके साथ ही सशस्त्र आदर्शवाद की आखिरी अभिव्यक्ति के रूप में अमेरिकावाद भी पूरी तरह नहीं, तो आंशिक रूप से लुप्त हो ही गया। अमेरिका-विरोध को एक वैचारिक स्थिति के रूप में मान्यता तो शीतयुद्ध के समय में ही मिल गई थी। इसकी वजह यह थी कि उस वक्त भी एक पूंजीवादी विकल्प मौजूद था, जिसके पास स्वतंत्रता और प्रगति का अपना मॉडल था। यह वामपंथी रोमांस था, जिसे उस वक्त भी पृथ्वी के स्वर्ग बन जाने की संभावना दिखती थी, जिसका सोवियत संघ ने वादा भी किया था। सुरक्षित दूरी से देखने पर वहां एक ऐसी दुनिया का प्रवेश द्वार दिखता था, जहां कोई भ्रष्ट नहीं था। इनमें से कौन-सा विकल्प सही था, यह समझने में दुनिया को थोड़ा समय लगा। अंग्रेजी लेखक टिमोथी गार्टन ऐश ने जिसे 1989 का 'रिफोल्यूशन' (रिवॉल्यूशन और रिफॉर्म) कहा था, जिसकी परिणति पूर्वी यूरोप में स्वतंत्रता के उदय और सोवियत-साम्राज्य के पतन के रूप में हुई, उसके चलते अमेरिका-विरोध या साम्राज्य-विरोध का अंत नहीं हुआ। इसे एक परिचित उदाहरण से समझ सकते हैं। बर्लिन की दीवार गिरने के बाद भी भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान दुनिया को शीतयुद्ध के समय के पुराने पड़ चुके चश्मे से देखने से खुद को नहीं रोक सका। अमेरिका-विरोध के विचार से बाहर निकलकर हमारी विदेश नीति में सांस्कृतिक बदलाव लाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्ति की आवश्यकता पड़ी। हम अब एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां खबरों की सुर्खियां लिखने वाले अमेरिकी टैरिफ का काल और ट्रंपकालीन साम्राज्यवाद जैसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, जो शीतयुद्ध के बाद की सत्ता संरचना में खलल की ओर इशारा करते हैं, जिसने वैश्विकता की अपरिवर्तनीयता और राष्ट्रीय हित की सर्वोच्चता के बीच संतुलन बनाए रखा था। ट्रंप का अमेरिका अराजकता की धुरी के रूप में उभर रहा है, तथा स्वाभाविक सहयोगियों और रणनीतिक साझेदारों के बारे में पुरानी धारणाएं एक व्यक्ति की महानता के विचार के बोझ तले दबकर दम तोड़ रही हैं। इससे इस तर्क को ही बल मिलता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका का सांस्कृतिक युद्ध के साथ-साथ आर्थिक युद्ध जीतना ऐतिहासिक रूप से अपरिहार्य था, क्योंकि वह जिस व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा था, वह कृत्रिम थी। यह निश्चित नहीं है कि अमेरिका को फिर से महान बनाने के लिए व्यापार को हथियार बनाने या वैश्वीकरण के असमान लाभों से अमेरिकी बाजार को 'मुक्त' करने की ट्रंप की कोशिशें ट्रंपवाद के नाम पर कामयाब होंगी। दरअसल, 'सौदा करो या बर्बाद हो जाओ' के सिद्धांत पर आधारित वैश्विक दृष्टिकोण ट्रंप के संपूर्ण साम्राज्य को (जो फिलहाल प्रगति पर है) सीमित कर देता है। दुनिया को धमकी दी जा रही है कि वह उसकी शर्तों को स्वीकार कर ले, अन्यथा उसे दंड भुगतना पड़ेगा। इस सहज अधिनायकवाद की राजनीति को प्रेरित करने वाला यह विश्वास है कि पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली राजनेता की इच्छाएं ही राष्ट्र की नियति बन जाती हैं। यह राजनीति तथ्यों को मनगढ़ंत शिकायतों के साथ खारिज करती है (जब आंकड़े उसके अपने आंकड़ों से असंगत सत्य बताते हैं, तो आंकड़े देने वाले ही बर्खास्त कर दिए जाते हैं) और विशेषज्ञता से ऊपर अधीनता को तवज्जो देती है। ट्रंप के साम्राज्य में चुने हुए व्यक्ति ही महत्वपूर्ण हैं। उनके राज्य में शिकायत व प्रतिशोध और प्रभुत्व व असुविधाजनक लोगों के आकस्मिक निपटारे की विशेषताएं देखी जा सकती हैं। राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में ट्रंप को राजनीतिक अभिजात्यवाद के विरुद्ध आक्रोश से प्रेरणा मिली, लेकिन अमेरिका प्रथम में विश्वास रखने वाले राष्ट्रपति ट्रंप निष्पक्षता की अपनी तीव्र खोज में संयम को कमजोरी के रूप में देखते हैं। वह खुद से जो वादा करते हैं, वह अमेरिकी हितों को ध्यान में रखते हुए एकध्रुवीय विश्व का है, जो एक क्षणभंगुर साम्राज्य की आखिरी आह से ज्यादा कुछ नहीं है। ट्रंप के साम्राज्यवादी शासन में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं पर जोर नए अमेरिकी-विरोध को एक वैचारिक आधार देने से इन्कार कर रहा है। शीतयुद्ध काल में दो सांस्कृतिक प्रणालियों के टकराव ने अमेरिकी-विरोध को एक स्थायी प्रत्युत्तर बना दिया था। शीतयुद्ध के विपरीत, व्यापार युद्ध पूरी तरह से एक व्यक्ति के अतिरंजित आत्म-मूल्यांकन पर निर्भर है। यह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पुनर्गठन ऐसा दौर है, जो बीत जाएगा। ट्रंप की टैरिफ-घोषणा के बाद उठी अमेरिका-विरोधी भावना की नई लहर ने यह साबित किया है कि भारत अमेरिका के बगैर भी महान हो सकता है। क्या यह अमेरिकी संस्कृति के पराभव की शुरुआत है
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 13, 2025, 06:19 IST
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