जलवायु परिवर्तन: 'वाटर टावर्स' जैसे जलस्तंभ से पृथ्वी को जीवन; यह सिर्फ पहाड़ी राज्यों की जिम्मेदारी नहीं...

जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और अस्थिर मानव हस्तक्षेप ने पर्वतीय जलस्रोतों के अस्तित्व को डगमगा दिया है। संयुक्त राष्ट्र की विश्व जल विकास रिपोर्ट 2025 गहरी चिंता जताती है कि पर्वतीय जलस्रोत, जो दुनिया के ताजे पानी का 60 फीसदी तक उपलब्ध कराते हैं, हमारी आंखों के सामने पिघल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की यह रिपोर्ट अक्सर नजरों से ओझल रहने वाले सच से रूबरू कराती है। विश्व की जल सुरक्षा, पारिस्थितिकी और खाद्य आपूर्ति का बड़ा हिस्सा उन ऊंचे इलाकों पर निर्भर है, जिन्हें हम आमतौर पर हिमालय या आल्प्स जैसे नामों से जानते हैं। इन्हीं को वैज्ञानिक अब वाटर टावर्स कहते हैं। ऐसे जलस्तंभ, जो पृथ्वी को जीवन देते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2000 से 2021 के बीच विश्व में ताजे पानी की खपत में 14 फीसदी की वृद्धि हुई है। कृषि क्षेत्र सबसे बड़ा उपभोक्ता बना हुआ है, जो कुल खपत का लगभग 72 फीसदी पानी इस्तेमाल करता है। औद्योगिक खपत 15 फीसदी व घरेलू खपत 13 फीसदी है। विकसित देशों में औद्योगिक खपत अधिक है, जबकि गरीब देशों में 90 फीसदी तक पानी खेती के काम आता है। बढ़ती मांग के बीच चिंता यह है कि आल्प्स, एंडीज, किलिमंजारो से लेकर हिमालय तक, लगभग हर पर्वतीय क्षेत्र के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। थर्ड पोल के नाम से मशहूर हिंदूकुश-कराकोरम-हिमालय में सदी के अंत तक बर्फ की मात्रा आधी रह जाने की आशंका है। यही क्षेत्र लगभग 1.65 अरब लोगों को पानी उपलब्ध कराता है। भारतीय हिमालय में 9,500 से अधिक ग्लेशियर हैं। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी और आईआईटी, कानपुर के अध्ययन बताते हैं कि पिछले तीन दशकों में ये ग्लेशियर औसतन 15 से 20 मीटर सालाना पीछे हटे हैं। गंगोत्री ग्लेशियर 1935 से अब तक लगभग तीन किलोमीटर पीछे हट चुका है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि निकट भविष्य में नदियों का प्रवाह कुछ वर्षों के लिए तो बढ़ सकता है, लेकिन दीर्घकाल में उसमें भारी कमी आएगी। ग्लेशियर झील फटने से आने वाली अचानक बाढ़ की समस्या भी बढ़ रही है। 2023 में सिक्किम की दक्षिण लोनक झील फटने से आई बाढ़ ने कई गांवों और हाइड्रो प्रोजेक्टों को तबाह कर दिया था। रिपोर्ट सुझाव देती है कि इन आपदाओं की निगरानी, प्रारंभिक चेतावनी व्यवस्था व आपदा पूर्व तैयारी को पर्वतीय नीति का जरूरी हिस्सा बनाया जाए। भारत के गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन में 40 प्रतिशत से अधिक कृषि क्षेत्र है, जहां धान, गेहूं और गन्ने जैसी जल-गहन फसलें उगाई जाती हैं। ग्लेशियर पिघलाव में बदलाव से इनकी उत्पादकता पर सीधा असर पड़ना तय है। यूएन की रिपोर्ट के अनुसार, जल संकट से निपटने के लिए केवल तकनीकी समाधानों पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं होगा। स्थानीय और पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों को भी समान महत्व देना होगा। भारत के उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में खाल, गुल और कुल्ह जैसी पारंपरिक जलसिंचन व्यवस्थाएं सदियों से पानी के संरक्षण और संतुलन का उदाहरण रही हैं। इसी तरह उत्तर-पूर्व के अरुणाचल प्रदेश में अपतानी जनजाति की सीढ़ीदार खेती जल उपयोग की दक्षता का एक आदर्श मॉडल है। इन प्रणालियों को आधुनिक विज्ञान से जोड़कर जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। भारत ने राष्ट्रीय जल नीति, हिमालयन ग्लेशियर मॉनिटरिंग प्रोग्राम और जलवायु अनुकूलन योजनाओं में पर्वतीय जलस्रोतों के संरक्षण पर बल दिया है, लेकिन रिपोर्ट कहती है कि ये प्रयास अभी सीमित हैं और इन्हें अधिक व्यापक, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के स्तर पर विस्तारित करने की आवश्यकता है। ब्रह्मपुत्र और सिंधु बेसिन जैसे साझा जलस्रोतों के संदर्भ में भारत, नेपाल, भूटान, चीन और बांग्लादेश को डाटा साझा करने, संयुक्त निगरानी और साझा अनुकूलन रणनीतियों पर मिलकर काम करना होगा। रिपोर्ट इस पूरी चुनौती को सतत विकास लक्ष्य छह से भी जोड़ती है। रिपोर्ट का अंतिम वाक्य एक चेतावनी की तरह सुनाई देता हैै। भारत के लिए यह भविष्य की नीति और आज के निर्णय, दोनों को तय करने वाली होनी चाहिए। हकीकत यह है कि पर्वतों और हिमनदों का संरक्षण केवल हिमालयी राज्यों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र की प्राथमिकता होना चाहिए। यदि हमने समय रहते इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया, तो आने वाले दशकों में नदियों का प्रवाह और जीवन का संतुलन, दोनों अस्थिर हो जाएंगे। तब शायद हमारी आने वाली पीढ़ियां न तो बर्फ से ढकी चोटियों को वैसे देख पाएंगी, जैसे हम देखते हैं, और न ही उन नदियों का मीठा पानी पी पाएंगी, जिनसे हमारी सभ्यता ने जन्म लिया था। यह चेतावनी अब केवल वैज्ञानिक रिपोर्टों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि नीति, समाज और जनचेतना का हिस्सा बननी चाहिए, क्योंकि पहाड़ों का भविष्य ही हमारे जीवन का भविष्य है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 13, 2025, 05:17 IST
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