बिहार चुनाव: श्रीबाबू युग के बाद सवर्ण कमजोर, पिछड़ों की दस्तक, जातीय गोलबंदी ने दिए ताबड़तोड़ 11 मुख्यमंत्री
आजादी के बाद के शुरुआती दो दशक बिहार की राजनीति में श्रीबाबू यानी श्रीकृष्ण सिंह युग के नाम से जाने जाते हैं। 1961 में उनके निधन के बाद मुख्यमंत्री का पद खाली हुआ, तो बिहार की राजनीति में सत्ता का संतुलन डगमगा गया। 1937 और 1952 में जाति के दम पर जिस कुर्सी को श्रीकृष्ण सिंह ने गांधी और राजेंद्र प्रसाद की इच्छा के विरुद्ध साध लिया था, अब उस पर काबिज होना किसी एक गुट के लिए आसान नहीं रहा। उनके करीबी क्षत्रिय समाज से आने वाले दीप नारायण सिंह को केवल 17 दिनों के लिए कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद, बिहार कांग्रेस की सत्ता की लड़ाई में जातिगत गुटबाजी चरम पर पहुंच गई। श्रीबाबू के निधन से 1990 तक, यानी 29 वर्षों में बिहार ने 11 मुख्यमंत्री देखे। यह राजनीतिक अस्थिरता इस बात का प्रमाण थी कि कांग्रेस के भीतर अगड़ी जातियों का प्रभुत्व तो था, पर अब वे एकजुट नहीं थे। उस दौर में कांग्रेस में जितने नेता और जातियां थीं, उतने ही गुट दिखाई देने लगे। मसलन, ब्राह्मणों का विनोदानंद झा गुट, कायस्थों का केबी सहाय गुट, भूमिहारों का महेश प्रसाद सिन्हा गुट और क्षत्रियों का सत्येन्द्र नारायण सिन्हा गुट। इन सभी का एकमात्र मकसद था, किसी भी कीमत पर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करना या अपने जातीय नेता को मुख्यमंत्री बनाना। ब्राह्मण बनाम भूमिहार सत्ता के लिए महाजंग : श्रीकृष्ण के निधन के बाद, मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में सबसे बड़ी जोर-आजमाइश ब्राह्मण गुट के विनोदानंद झा और भूमिहार गुट के महेश प्रसाद सिन्हा के बीच हुई। भूमिहारों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए, कायस्थ गुट के केबी सहाय और क्षत्रिय गुट के सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने मजबूरी में ही सही, विनोदानंद झा को अपना समर्थन दिया। हालांकि विनोदानंद विधायक दल के नेता तो चुन लिए गए, लेकिन महेश प्रसाद सिन्हा गुट के भारी विरोध के चलते उनका शपथग्रहण और मंत्रिमंडल का गठन महीनों तक अटका रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के हस्तक्षेप के बावजूद, महेश प्रसाद गुट को ज्यादा हिस्सेदारी देने के सख्त निर्देश के तीन महीने बाद मंत्रिमंडल का विस्तार हो पाया। 1962 चुनाव में कांग्रेस की घटती सीटें कांग्रेस में गुटबाजी थमी नहीं। 1962 में बिहार कांग्रेस तीन प्रमुख गुटों में बंटी थी—ब्राह्मणों का विनोदानंद झा गुट, कायस्थों का केबी सहाय गुट और भूमिहारों का महेश प्रसाद सिन्हा गुट। सत्ता के लिए इन गुटों की प्रेशर पॉलिटिक्स का नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस चुनाव जीत तो रही थी, लेकिन उसकी सीटें लगातार घटती जा रही थीं। 1952 में 330 में 239 सीटें, तो 1957 में 318 में 210 सीटें कांग्रेस ने जीतीं, लेकिन 1962 में वह 318 में मात्र 185 सीटें ही हासिल कर सकी। 1962 में चुनाव के बाद विनोदानंद को फिर से मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए महेश प्रसाद गुट ने केबी सहाय को उनके खिलाफ खड़ा करने की योजना बनाई, लेकिन सहाय ने अंतिम समय पर पाला बदलकर झा के लिए रास्ता साफ कर दिया। इस बार, विनोदानंद ने स्थिति मजबूत करने के लिए पिछड़ी जाति के नेताओं पर पहली बार दांव लगाया और मंत्रिमंडल में महेश प्रसाद को दरकिनार किया। सहाय को भी मंत्री बनने में साढ़े तीन महीने का वक्त लग गया। जहर वाली मछली कांड और कामराज प्लान सत्ता की अंदरूनी जंग तब शर्मसार करने वाली स्थिति पर पहुंच गई, जब 1963 में विनोदानंद ने सीधे पीएम नेहरू से शिकायत की कि उनकी हत्या के लिए दुश्मनों ने उन्हें जहर वाली मछली भेजी थी। इस शिकायत से देश की राजनीति में हड़कंप मच गया। कांग्रेस की गुटबाजी जगजाहिर हो गई। खुफिया जांच में सहाय के करीबी रामलखन सिंह यादव का नाम सामने आया। कांग्रेस की हो रही फजीहत को देखते हुए केंद्रीय नेतृत्व ने झा को किनारे लगाने की तैयारी शुरू कर दी। अक्तूबर 1963 में कामराज प्लान आया। इसके तहत पूरे देश में कांग्रेस की जहां भी सरकारें थीं, उनमें 10 साल से सत्ता में रहे नेताओं को संगठन में लाया गया। इससे झा को सीएम की कुर्सी गंवानी पड़ी। सवर्णों का गठबंधन और सहाय की ताजपोशी श्रीकृष्ण के निधन के बाद से सीएम का सपना देख रहे कायस्थ जाति से आने वाले सहाय के लिए यह लॉटरी जैसा था। हालांकि, झा जाते-जाते कुर्मी जाति के वीरचंद पटेल का नाम आगे कर गए। एक पिछड़े वर्ग के नेता को सीएम बनने से रोकने के लिए एक-दूसरे के विरोधी रहे सवर्णों के गुट सहाय, सिन्हा, और सत्येन्द्र नारायण सिंह अभूतपूर्व तरीके से एकजुट हो गए। मशक्कत और अपने करीबी रामलखन सिंह यादव के वीरचंद पटेल से किनारा करने के बाद, आखिरकार केबी सहाय बिहार के मुख्यमंत्री बन गए। 1967 में कांग्रेस का पतन : कायस्थ बनाम कायस्थ सहाय को बड़ी चुनौती कायस्थ जाति के महामाया प्रसाद सिन्हा से मिली। 1967 के चुनाव से पहले महामाया प्रसाद ने रामगढ़ के राजा कामख्या नारायण सिंह के साथ जनक्रांति दल बनाई। इस गुटबाजी ने कांग्रेस की कमर तोड़ दी। कांग्रेस 318 में से सिर्फ 128 सीटें जीत पाई। आजादी के बाद पहली बार बिहार में कई दलों ने गठबंधन कर गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई। मुख्यमंत्री फिर कायस्थ नेता और पूर्व कांग्रेसी महामाया बने। इस बदलाव के बाद सत्ता की बागडोर पिछड़ों की आेर मुड़ने लगी। पिछड़ों में राजनीतिक चेतना का उभार यह दौर केवल अगड़ी जातियों के आपसी संघर्ष का नहीं था, बल्कि पिछड़ी जातियों की राजनीतिक चेतना का उभार भी इसी समय शुरू हुआ। 1967 में सतीश प्रसाद सिंह, जो जाति से कुशवाहा थे, मात्र 5 दिन के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बने। उनकी यह छोटी सी पारी वास्तव में बिहार के भविष्य में होने वाले बड़े बदलाव का संकेत थी। 1970 का दशक आते-आते पिछड़ी जातियों का राजनीतिक उभार और मजबूत हुआ। इसी समय पिछड़े वर्ग के एक मज़बूत चेहरे कर्पूरी ठाकुर का उदय हुआ। कर्पूरी ठाकुर अति पिछड़ा वर्ग नाई जाति से आते थे। 22 दिसंबर 1970 को कर्पूरी पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। कर्पूरी का शासनकाल केवल 163 दिन का था, पर यह टर्निंग पॉइंट था। उन्होंने अपनी सादगी और सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता से मजबूत जननेता की छवि बनाई। वे पिछड़े, दलितों और गरीबों के सबसे बड़े समर्थक के तौर पर उभरे। कर्पूरी ठाकुर का उदय इस बात का संकेत था कि अब बिहार की राजनीति केवल अगड़ी जातियों के नेताओं के इर्द-गिर्द नहीं घूमेगी, बल्कि संख्या बल के आधार पर सामाजिक न्याय के नए नायक सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगेंगे। यह 1990 की पिछड़ा राजनीति की दस्तक थी।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Oct 29, 2025, 04:54 IST
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