उदयप्रताप सिंह की कविता- फूल और कली

फूल से बोली कली क्यों व्यस्त मुरझाने में है फ़ायदा क्या गंध औ मकरंद बिखराने में है तूने अपनी उम्र क्यों वातावरण में घोल दी अपनी मनमोहक पंखुरियों की छटा क्यों खोल दी तू स्वयं को बाँटता है जिस घड़ी से तू खिला किन्तु इस उपकार के बदले में तुझको क्या मिला मुझको देखो मेरी सब ख़ुशबू मुझ ही में बंद है मेरी सुन्दरता है अक्षय अनछुआ मकरंद है मैं किसी लोलुप भ्रमर के जाल में फँसती नहीं मैं किसी को देख कर रोती नहीं हँसती नहीं मेरी छवि संचित जलाशय है सहज झरना नहीं मुझको जीवित रहना है तेरी तरह मरना नहीं मैं पली काँटो में जब थी दुनिया तब सोती रही मेरी ही क्या ये किसी की भी कभी होती नहीं ऐसी दुनिया के लिए सौरभ लुटाऊँ किसलिए स्वार्थी समुदाय का मेला लगाऊँ किसलिए फूल उस नादान की वाचालता पर चुप रहा फिर स्वयं को देखकर भोली कली से ये कहा ज़िंदगी सिद्धांत की सीमाओं में बँटती नहीं ये वो पूंजी है जो व्यय से बढ़ती है घटती नहीं

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 27, 2024, 21:08 IST
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