Krishna River: प्रदूषित कृष्णा नदी बांट रही बीमारी

महज 153 किलोमीटर का ही सफर है इसका, कई करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी दूषित बनी यमुना–उसकी सहायक हिंडन नदी, जो सालों से पवित्र होने के वादों की घुट्टी पी रही है और उसकी भी सहायक है यह कृष्णा। जहां-जहां से गुजर रही है मौत बांट रही है और जाहिर है, जिन नदियों में इसका मिलन हो रहा है, वे भी इसके दंश से हैरान-परेशान हैं। जिले के गांव हसनपुर लुहारी में कैंसर से आधा दर्जन से अधिक लोग पीड़ित हैं। करीब एक दर्जन लोग दम तोड़ चुके हैं। यहां हेपेटाइटिस बी व सी और लीवर, त्वचा, हृदय, किडनी के कैंसर के मरीजों की काफी संख्या है। दखौड़ी, जमालपुर, चंदेनामाल समेत कई गांवों के हालात भयावह हैं, जहां कैंसर पीड़ित मरीज मौत से लड़ रहे हैं। इस महीने के प्रारंभ में जारी शामली जिले के स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट बताती है कि जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसे गांवों में 22 लोग कैंसर-ग्रस्त मिले हैं। इसके अलावा 63 को सांस की दिक्कत, 20 को लीवर की परेशानी, 55 को त्वचा रोग और 12 पेट के गंभीर रोग से ग्रसित पाए गए। कृष्णा नदी तो बस एक बानगी है, देश की अधिकांश छोटी नदियां स्थानीय नगरीय या औद्योगिक कचरों की मार से बेदम हैं। जब सरकारें बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर धन खर्च करती हैं और अपेक्षित परिणाम नहीं निकलते, तो उसका मुख्य कारण कृष्णा जैसी छोटी नदियों के प्रति उपेक्षा ही होता है। कृष्णा नदी का प्रवाह हिंडन की पूर्वी दिशा में सहारनपुर जिले के दरारी गांव से एक झरने से प्रारंभ होता है। यहां से यह करीब 153 किलोमीटर की दूरी नापकर बागपत जनपद के बरनावा कस्बे के जंगल में हिंडन में समाहित हो जाती है। इस नदी में कई कारखानों का गैर-शोधित रासायनिक तरल कचरा और घरेलू नालियों का पानी गिरता है। कृष्णा नदी में सहारनपुर से ही कई फैक्टरियों का गंदा पानी गिरता है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड स्वीकारकरता है कि शामली जिले में दो पेपर मिलों तथा एक डिस्टलरी का अवशिष्ट पानी नालों के जरिये नदी तक पहुंचता है। केवल कारखानों को दोष क्यों दें, अकेले शामली जिले की सीमा में करीब 47 नाले कृष्णा नदी को दूषित कर रहे हैं। बागपत जिले का गंग्रौली गांव तो कैंसर-गांव के नाम से बदनाम है। यहां वर्ष 2013 से अब तक कोई 86 लोग कैंसर से मरे हैं। करीब 30 साल पहले कृष्णा नदी पूरी तरह से स्वच्छ थी। इसके पानी से खेत भी सींचे जाते थे और घरेलू काम में भी उपयोग किया जाता था। शहरों-कस्बों की गंदगी के साथ कारखानों के जहर ने इसका नुकसान तो किया ही, अधिक लाभ कमाने के लोभ में गन्ने के साथ सताह धान की खेती ने नदी ही नहीं, भूजल को भी जहरीला बना दिया। चार साल पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने कृष्णा के साथ-साथ काली और हिंडन के किनारे बसे गांवों के हजारों हेंडपंप बंद करवा दिए थे। लेकिन इन इलाकों में तत्काल पानी की वैकल्पिक व्यवस्था न होने के चलते हेंडपंप का इस्तेमाल होता रहा। कृष्णा के जल के जहरीले होने पर विधानसभा में भी चर्चा हुई और संसद में भी। कृष्णा को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए आंदोलन भी हुए, लेकिन कृष्णा साफ नहीं हुई। दुर्भाग्य है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए गठित एनजीटी भी कृष्णा के प्रदूषण के सामने बेबस है। फरवरी, 2015 में एनजीटी ने इस विफलता के लिए छह जिलों के कलेक्टरों पर पांच-पांच हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया था। फरवरी, 2021 में एनजीटी ने कृष्णा की जिम्मेदारी राज्य के सचिव को सौंपी थी। मामला केवल कृष्णा का नहीं, छोटे कस्बों, गांवों से बहने वाली सभी अल्पज्ञात या गुमनाम नदियों का है, जिनके किनारे खेतों में बेशुमार रसायन के इस्तेमाल, जंगल-कटाई, नदी के मार्ग पर कब्जे, रेत खनन ने नदियों के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है। नदी सैंकड़ों जीवों का आश्रय स्थल, लोगों के जीवकोपार्जन का माध्यम और धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने का नैसर्गिक तंत्र भी है। जितनी जरूरत बड़ी नदियों को बचाने की है, उससे कहीं अधिक जरूरत कृष्णा जैसी छोटी नदियों को सहेजने की भी है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Jan 18, 2023, 02:02 IST
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