Modern Agriculture: आधुनिक कृषि में छिपी जीव-विनाश की कहानी

जीवित ग्रह पृथ्वी पर जीव प्रजातियों के सामूहिक विलुप्तीकरण में सबसे बड़ा हाथ हमारी कृषि का है। चिपको आंदोलन के प्रणेता और पर्यावरण की अलख जगाने वाले दिवंगत सुंदरलाल बहुगुणा कहते थे कि आदमी ने जिस दिन पहली बार धरती पर हल चलाया था, उसी दिन उसने अपने विनाश की कहानी लिख दी थी। कृषि केवल मानव विनाश की ही नहीं, जीवों के विनाश की भी कहानी लिख रही है, यह तथ्य अभी हाल ही में पुनः उजागर हुआ है। हाल ही में अमेरिका के सुप्रसिद्ध पत्रकार व लेखक स्कॉट कैमेरॉन पेले ने कुछ वैज्ञानिकों द्वारा जीवों के छठे सामूहिक विलुप्तीकरण से संबंधित अध्ययनों और विचारों पर एक रिपोर्ट पेश की है, जिसमें जिन मानव गतिविधियों को पृथ्वी पर मौजूदा सामूहिक जीव विनाश का कारण बताया गया है, उनके केंद्र में कृषि है। इस पृथ्वी के इतिहास में जीव प्रजातियों की पांच बड़ी सामूहिक मौतें हुई हैं, जिनमें उनका अस्तित्व सदैव के लिए मिट गया। पांचवां सामूहिक विलोपन (मास एक्सटिंक्शन) लगभग 6.6 करोड़ वर्ष पहले हुआ था, जब एक क्षुद्रग्रह ने डायनासोरों का सफाया कर दिया था। वैज्ञानिकों के मुताबिक, अभी प्रदूषण, जीवों के प्राकृतिक आवास का विनाश, संसाधनों का अत्यधिक दोहन और जलवायु परिवर्तन जीव विनाश के प्रमुख कारण हैं। वर्तमान कालखंड में जिस मानव गतिविधि ने छठे सामूहिक जीव विलुप्तीकरण को हवा दी है, वह है कृषि। मैक्सिको के पारिस्थितिकी वैज्ञानिक गेरार्डो सेबलोस का कहना है कि 50 साल पहले महासागरों में जितनी बड़ी मछलियां थीं, उनमें से केवल दो प्रतिशत ही शेष बची हैं। हमने धरती पर पाए जाने वाले सभी जंतुओं में से लगभग 70 प्रतिशत खो दिए हैं। वर्ष 1918 के बाद से सभी बड़े जानवरों में से 70 प्रतिशत विलुप्त हो गए हैं। हमने 2000 के बाद से दक्षिण पूर्व एशिया के उष्णकटिबंधीय वनों का 90 प्रतिशत खो दिया है। सामूहिक विलुप्तीकरण की पिछली पांच घटनाओं और अब जारी छठी विनाश की घटना में अंतर यह है कि उन्हें होने में लाखों साल लगे थे और वर्तमान घटना इतनी तेजी से घट रही है कि अब केवल दो या तीन दशकों में अनेक प्रजातियों के पास जीवित रहने के लिए पर्याप्त समय नहीं होगा। यहां तक कि जो प्रजातियां विलुप्त होने के संकट से सीधे प्रभावित नहीं हैं, वे भी इस दुष्चक्र में फंस जाएंगी। पृथ्वी के वन्यजीवों के रहने के स्थान तेजी से नष्ट हो रहे हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस शताब्दी के अंत तक ग्रह से लगभग 50 प्रतिशत जीव विलुप्त हो जाएंगे। विश्व वन्यजीव कोष की मुख्य वैज्ञानिक और वरिष्ठ उपाध्यक्ष रेबेका शॉ आश्चर्य व्यक्त करती हैं कि 2018 से 2020 के दो वर्षों के बीच वन्यजीवों की आबादी 64 प्रतिशत से 68 प्रतिशत तक समाप्त हो गई। रेबेका शॉ वन्यजीवों के उजड़ने के पीछे का प्रमुख कारण कृषि को मानती हैं। वह कुछ उदाहरण देती हैं, जैसे उष्णकटिबंधीय वर्षावनों को सोयाबीन और मक्का की खेती, या पशुओं को चराने के लिए उजाड़ा जा रहा है। वर्षावन ग्रह की जलवायु और मौसम के पैटर्न को स्थिर करने तथा कंद-मूल-फल व औषधियां देने एवं स्वच्छ जल का संरक्षण जैसी बुनियादी पारिस्थितिक सेवाएं देतेहैं। कृषि कार्यों के चलते वर्षावनों के नष्ट होने से पृथ्वी का जीवन इन जीवनदायिनी सेवाओं से वंचित हो रहा है। वनों जैसे प्राकृतिक परिवेश, जिनमें अधिकांश जीव जगत फूलता-फलता है, जिनसे पारिस्थितिक संतुलन कायम रहता है, वे सब कृषि भूमि की भेंट चढ़ रहे हैं, जिस पर केवल मानव प्रजाति का एकाधिकार है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का मात्र 2.5 प्रतिशत ही पीने व घरेलू कार्यों के योग्य है, लेकिन इसका भी 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सा फसलों की सिंचाई में लग जाता है। आधुनिक कृषि में जिन खाद्यान्न फसलों को बोया जाता है, उनकी प्यास कभी नहीं बुझती। सिंचाई के लिए पानी उलीचते-उलीचते हमने नदियों और नहरों को भी सुखा डाला है। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि सिंचाई के लिए खाली कर डाले गए जलस्रोतों के साथ कितनी जीव प्रजातियां सदैव के लिए काल के गाल में समा गई होंगी! सिर्फ जलस्रोतों के रीतने से ही नहीं, उनके प्रदूषित होकर शनैः शनैः सूखने से भी जलीय जीव लुप्त हो रहे हैं और इसमें भी आधुनिक कृषि का बड़ा हाथ है। फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए प्रयुक्त हो रहे रासायनिक उर्वरक (विशेषकर नाइट्रोजन और फॉस्फोरस) बहकर जब जलस्रोतों में पहुंचते हैं, तो उनमें नील-हरित शैवाल (ब्लू-ग्रीन एल्गी) का जाल फैल जाता है, जिससे जलाशय में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और शैवाल से रिस कर विषैले तत्व पानी में घुल जाते हैं, जिससे जलाशय का पर्यावरण जलीय जीवों के लिए प्रतिकूल हो जाता है। धीरे-धीरे जलाशय भी सूखने लगते हैं। साफ है कि हमारे व्यवहार को बदले बिना प्रजातियों के विलुप्तीकरण का संकट नहीं टलेगा। जैव-विविधता से सराबोर प्रकृति और प्राकृतिक संसाधन फूलते-फलते रहें, जिससे ग्रह पर पारिस्थितिक स्थायित्व बना रहे-यह इसलिए भी जरूरी है कि हमें भी प्राणवायु, जल, भोजन और जीवनानुकूल जलवायु मिलती रहे। हमारी सभी मूलभूत आवश्यकताएं और जिंदा रहने की शर्तें प्रकृति में ही निहित हैं। अगर हम अपने भोजन और विलासिता के लिए प्रकृति को ही तार-तार करेंगे, और जीव प्रजातियों को विलुप्तीकरण के घाट उतारते रहेंगे, तो हम मानव जीवन पर भी ग्रहण लगा रहे होंगे! चूंकि कृषि पर ही संपूर्ण मानवता का वर्तमान और भविष्य निर्भर है, इसलिए कृषि नीतियों में संपूर्ण परिवर्तन हम एक झटके में नहीं कर सकते। हमें धीरे-धीरे कृषि को ग्रह पर जीवन के सिद्धांतों के अनुरूप बनाना होगा। हमें सुनिश्चित करना होगा कि हम ऐसे खाद्य पदार्थ खाएं, जो ग्रह के अनुकूल हों और जिन्हें उगाने में जीव प्रजातियों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हम भोजन बिल्कुल नष्ट न करें, क्योंकि अभी सभी खाद्यपदार्थों का 40 प्रतिशत नष्ट हो जाता है। उस भोजन का उत्पादन करने के लिए प्रकृति को 40 प्रतिशत अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ता है। खाना बर्बाद नहीं करने से इतने क्षेत्र की प्रकृति अक्षुण्ण रहेगी। -प्रोफेसर एमेरिटस, जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Jan 18, 2023, 01:56 IST
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