विचार : अखंड भारत का सपना, दलितों की जिंदगी को बदल दिया है मोदी की नीतियों ने
बीते 14 अप्रैल को डॉ. बीआर आंबेडकर की 135वीं जयंती यकीनन सबसे भव्य थी और संभवतः इसमें लोगों की मौजूदगी भी सबसे ज्यादा रही। सत्तारूढ़ दल के साथ-साथ विपक्षी दलों के नेताओं ने भी उन्हें पुष्पांजलि अर्पित की। उन्होंने उस दलित नेता को सलाम किया, जिसने अपने जीवन में अपनी बौद्धिक प्रतिभा, विशाल कानूनी ज्ञान और प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों से प्राप्त डिग्रियों के बावजूद भारी अपमान, अन्याय और भेदभाव को सहन किया। यदि बाबासाहेब ये समारोह देख रहे होते, तो उन्हें यकीन नहीं होता कि ये उनके लिए है! वह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि यह वही देश है, जहां वह दो डॉक्टरेट की डिग्री के साथ कोट और टाई पहनकर जब बॉम्बे विक्टोरिया टर्मिनस पहुंचे थे, तो कोई भी उन्हें उनके गांव तक नहीं ले गया। स्टेशन मास्टर की सिफारिश पर एक बैलगाड़ी चालक बहुत अधिक राशि पर उन्हें ले जाने के लिए तैयार हुआ। वह भी सूर्यास्त के बाद, ताकि आंबेडकर की छाया उसे अपवित्र न करे। यही नहीं, उसने यह शर्त भी रखी कि वह बस बैलगाड़ी के आगे चलेगा, जबकि आंबेडकर और उनके भाई गाड़ी चलाएंगे। दोनों भाई पूरे रास्ते प्यासे गए, क्योंकि किसी मंदिर, मस्जिद या दुकान से उन्हें पानी नहीं मिला। बाद में जब वह बंबई (अब मुंबई) आए, तो कोई उन्हें रहने के लिए किराये पर घर देने को तैयार नहीं था, इसलिए उन्हें अपना असली नाम छिपाना पड़ा और पारसी होने का नाटक करके कमरा किराये पर लेना पड़ा। पर जब उनकी बूढ़ी पारसी मकान मालकिन को उनके डाक से पता चला कि वह पारसी नहीं हैं, तो उसने उन्हें बाहर निकाल दिया! उनके कष्टों और अपमान का कोई अंत नहीं था। कार्यालय में कोई उन्हें फाइलें और दस्तावेज हाथ में नहीं देता था, बल्कि जमीन पर रख देता था! संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए लंबे समय तक काम करने के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। हिंदू कोड बिल को उसके मौलिक रूप में लाने के उनके प्रयासों के बावजूद उसे संसद में अक्तूबर 1948 में आंशिक रूप से पारित किया गया, जो हिंदू महिलाओं को संपत्ति में उत्तराधिकार, तलाक की कार्यवाही शुरू करने और अपने वित्त का प्रबंधन करने का अधिकार देने वाला अग्रणी प्रस्ताव था, पर देश के पहले राष्ट्रपति समेत कांग्रेस के रूढ़िवादी नेताओं ने इसका कड़ा प्रतिरोध किया। उन्हें इससे गहरी निराशा हुई कि प्रधानमंत्री नेहरू के समर्थन के बावजूद विधेयक को विवाह और तलाक के एक छोटे-से प्रावधान को छोड़कर, अपने संक्षिप्त रूप में भी पारित नहीं किया जा सका। एक तरह से उन्हें प्रधानमंत्री द्वारा धोखा दिया गया, जबकि नेहरू को कुछ और ही लगा। अंततः निराश आंबेडकर ने 27 सितंबर, 1951 को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने संसद में अपना विदाई भाषण देने से भी इन्कार कर दिया, क्योंकि वह उपसभापति के आचरण से दुखी थे। अपनी साख और दलितों के सशक्तीकरण के लिए लड़ने की अडिग प्रतिबद्धता के बावजूद, आंबेडकर के राजनीतिक आलोचकों ने यह सुनिश्चित किया कि वे दोबारा कभी लोकसभा के लिए निर्वाचित न हो सकें! 1936 में अपना प्रसिद्ध निबंध 'एनिहिलेशन कास्ट' लिखने के बाद से हिंदू धर्म के प्रति उनका मोह भंग हो गया। शशि थरूर अपनी पुस्तक- आंबेडकर ए लाइफ में लिखते हैं, 'आंबेडकर को विश्वास हो गया था कि अपने लोगों के लिए उचित व्यवहार की तलाश में उन्हें हिंदू धर्म छोड़ना होगा, और हिंदू कोड बिल पर हिंदू परंपरावादियों के अप्रिय व्यवहार ने उन्हें आश्वस्त किया कि उस दिशा से सार्थक सामाजिक सुधार की कोई उम्मीद नहीं थी।' उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में हजारों अनुयायियों के साथ एक भावुक भाषण देकर बौद्ध धर्म अपना लिया, 'अपने प्राचीन धर्म को त्याग कर, जो असमानता और उत्पीड़न का प्रतीक था, आज मेरा पुनर्जन्म हुआ है।' उन्होंने घोषणा की, 'मैं जाति व्यवस्था को त्याग दूंगा और मनुष्यों के बीच समानता फैलाऊंगा। मैं बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग का सख्ती से पालन करूंगा। बौद्ध धर्म एक सच्चा धर्म है और मैं ज्ञान, सही मार्ग और करुणा के तीन सिद्धांतों द्वारा निर्देशित रहूंगा।' कई शहरों में उनके पुतले जलाए गए और उनकी शवयात्रा निकाली गई। आंबेडकर के खिलाफ आक्रोश उनकी मृत्यु के बाद भी जारी रहा। मधु लिमये और चंद्रशेखर जैसे वरिष्ठ नेता तब आंबेडकर के पक्ष में खड़े हुए और उनके महान योगदान को स्वीकार किया। आज राज्य सरकारें बाबासाहेब की प्रतिमाएं स्थापित करने और दलितों के कल्याण और सशक्तीकरण के लिए योजनाओं के क्रियान्वयन में अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने की होड़ कर रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा लिए गए सैकड़ों जन-केंद्रित नीतियों और फैसलों से लाखों दलितों को लाभ मिला है। हैरानी नहीं कि दलित समुदायों से भाजपा का वोट शेयर काफी बढ़ गया है, जबकि उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती के प्रभाव में भारी गिरावट आई है। अगर सबका साथ, सबका विकास यों ही चलता रहे, तो दलितों की किस्मत बदल सकती है। विश्लेषकों का मानना है कि आज डॉ. आंबेडकर के प्रति जो बहुत ज्यादा श्रद्धा दिख रही है, उसका एकमात्र लक्ष्य है-चुनावों में दलित मतदाताओं का समर्थन पाना। क्या यह इस बात की स्वीकृति नहीं है कि उनकी मृत्यु के 70 साल बाद भी भारत में दलित समाज की मानसिकता पर आंबेडकर की मसीहाई पकड़ को कोई चुनौती नहीं दे सकता वर्ष 2047 तक विकसित भारत बनने की आकांक्षा एक महान लक्ष्य है। इसे हासिल करने के लिए हम सभी को अपने-अपने तरीके से योगदान देना चाहिए। लेकिन क्या हमें यह संकल्प नहीं लेना चाहिए कि इस विकसित भारत में अस्पृश्यता का नामोनिशान नहीं होगा (आज 13,000 से ज्यादा गांवों में यह प्रथा है), दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने से नहीं रोका जाएगा, हर 15 मिनट में एक दलित महिला का बलात्कार नहीं होगा, जैसा कि आज होता है, हजारों दलितों पर हमला और मारपीट नहीं होगी (एनसीआरबी रिकॉर्ड के अनुसार, हर साल दलितों पर 45,000 से ज्यादा हमले होते हैं; वास्तविक आंकड़ा चार गुना ज्यादा हो सकता है), मेडिकल कॉलेजों, आईआईटी और विश्वविद्यालयों में दलित छात्रों के साथ नियमित रूप से भेदभाव नहीं किया जाएगा यदि हम यह सुनिश्चित कर सकें, तो बाबासाहेब जहां भी होंगे, वहीं से आशीर्वाद देंगे। कई लोगों के झूठे दावों के विपरीत, आंबेडकर ने एक अखंड भारत का सपना देखा था। अगस्त,1946 में ही उन्होंने कहा था, 'मुझे पूरा विश्वास है कि समय और परिस्थितियों के अनुसार, दुनिया की कोई भी चीज इस देश को एक होने से नहीं रोक पाएगी। और, हमारी सभी जातियों और धर्मों के साथ, मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हम भविष्य में एक अखंड राष्ट्र होंगे।'
- Source: www.amarujala.com
- Published: Apr 21, 2025, 06:40 IST
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