जीवन: किसी को गिराया, न खुद को उछाला... क्या मनुष्य के प्रयासों का आकलन परिणामों के इर्द-गिर्द ही होना चाहिए?
क्या मनुष्य के प्रयासों का आकलन परिणामों के इर्द-गिर्द ही होना चाहिए (मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि कई बार चुनाव में कई प्रत्याशी कुछ वोट से हार जाते हैं, तो कई कुछ संख्या से जीत भी जाते हैं। यह माना जाता है कि संसदीय प्रजातंत्र में वही जीतता है, जिस पर जनता का भरोसा होता है। लेकिन जीतने वाले दल का ही कोई सदस्य चुनाव हार जाए, तो उनका क्या फिर उनके प्रयासों का आकलन कैसे होगा या जो दल लगातार हार रहे हैं, अगर उनका कोई प्रत्याशी जीत जाए, तो फिर क्या कहा जाए) कई छात्र किसी परीक्षा में कुछेक नंबर से रह जाते हैं और उनके यूपीएससी के सारे चांसेज समाप्त हो जाते हैं। वहीं कई सिर्फ एक-दो नंबर से भी उस फिनिशिंग लाइन को क्रॉस कर जाते हैं और अपने जीवन के तमाम वर्षों को सफलता की कहानी से बुनते रहते हैं। इसी तरह, ऑफिस में भी बहुत से ऐसे कर्मचारी तमाम प्रयासों के बावजूद सकारात्मक परिणाम नहीं ला पाते, जबकि जी-तोड़ प्रयास करते रहते हैं। वहीं कुछ लोग कम प्रयासों से भी बहुत उपयोगी परिणाम ला बैठते हैं। सवाल यह है कि अगर कोई समाज अपने नागरिकों को परिणामों के आधार पर ही तौलता रहता है, तो यह बौद्धिकता या उन प्रयासों के आकलन का कैसा स्तर है क्या उस अभ्यर्थी या आम नागरिक के सारे प्रयास कोई मायने नहीं रखते, जो नतीजे के पैमाने पर खरे नहीं उतरते क्या उपयोगिता सिर्फ उनकी रह जाती है, जो सफल होते हैं और जो कुछ संख्या से चूक जाते हैं, उनकी वर्षों की निष्ठा, मेहनत, प्रयास को समझने के लिए क्या समाज को उस आशा की लौ लिए नहीं खड़ा होना चाहिए क्या मनुष्य के संघर्ष का आकलन सिर्फ परिणाम पर निर्भर होता है या कोई मापदंड ऐसा भी होना चाहिए, जो उन संघर्षों को भी रिकॉर्ड करे, जो उस तरह के परिणाम नहीं ला सके। और उन माता-पिता का क्या, जो अपने बच्चों की सफलता का जश्न तो मनाते हैं, लेकिन उनकी पराजय को घर के दहलीज के अंदर कोई जगह नहीं देते क्या मनुष्य के होने का मतलब सिर्फ उसके प्रयासों के सकारात्मक परिणामों से आंका जाना चाहिए या उन गुणात्मक प्रयासों से भी, जो मौन में पलते हुए, सुबह तक जलते रहते हैं डाटा के जमाने में, परिणामों के जुनून में, उन सारे प्रयासों का क्या, जो हमसे थोड़ी उदारता और अदृश्य प्रयत्नों के प्रति जिम्मेदारी की आशा करते हैं एथिक्स के कुछेक सिद्धांत भी यह मानते हैं कि परिणाम ही मायने रखते हैं और अगर कोई परिणाम अधिकतम खुशी लाता है, तो वह उपयोगी है, एथिकल है। हालांकि, उस परिणाम के पीछे एक आदमी की पूरी कोशिश को भी गिना जाना चाहिए, लेकिन हम कड़ी मेहनत को नजरअंदाज करने या मिटाने में बहुत समय बिताते हैं और यहां तक कि हर चर्चा को सकारात्मक नतीजे के दायरे में ही रखना चाहते हैं। इसलिए जैसे ही विफलता या रुकावट आती है, विफल होने का भाव ही इन्सान को उस अंधी सुरंग में धकेल देता है, जहां सिर्फ निराशा होती है। और तब एथिक्स की भूमिका आती है, जो उस नायक को दार्शनिक कांट को भी याद करने को कहती है, जिन्होंने मनुष्य को साधन नहीं, साध्य माना और उस कर्तव्य भाव से किए गए कार्य और नैतिक इरादे को भी उतना ही महत्व दिया, जो किसी कार्य को संपादित करने के दौरान अहम होता है। मुझे उस फ्रेंच शिक्षक और इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी के संस्थापक सदस्य बैरन पियरे डी कुबर्टिन का कथन याद आ रहा है, जो कहते थे कि- 'जिंदगी में जरूरी सिर्फ जीतना ही नहीं होता, बल्कि जुझारूपन भी होता है; जरूरी सिर्फ सफल होना ही नहीं होता, बल्कि अच्छी तरह से मुकाबला करना भी होता है।' और इसकी सबसे बड़ी सीख हमें खेल से मिलती है, जहां परिणाम से अधिक जुझारूपन पर जोर दिया जाता है। और तमाम जीत-हार से परे, वह स्पोर्ट्स एथिक्स के साथ संघर्ष का जज्बा ही किसी मोहम्मद अली, मिल्खा सिंह, रोजर फेडरर, तो किसी सचिन तेंदुलकर को उस खेल का पर्याय बना देता है। हालांकि, जब नतीजा आपके पक्ष में न हो, तो उस मोटिवेशन, अनुशासन, कड़ी मेहनत, लगन और निरंतरता को बनाए रखना आसान नहीं होता। लेकिन जैसा कि कहा गया है कि जब युद्ध चल रहा हो, तो बीच में घोड़े नहीं बदलने चाहिए। इसका मतलब यह है कि अगर नतीजे अच्छे नहीं हैं, तो कभी भी बुनियादी बातें बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अगर कोई व्यक्ति हमारे देश के राजनीतिज्ञों से एक सीख लेना चाहता है, तो वह है-हार या जीत के बावजूद जिंदगी के प्रति उनका सकारात्मक रवैया। मत भूलिए कि उन्हें अगला मौका फिर पांच साल या कई बार उससे ज्यादा समय बाद ही मिलता है, लेकिन उनका फोकस हर बार उन प्रयासों पर होता है, न कि परिणामों पर। तो क्यों न हम उन राजनेताओं, नौकरशाहों, खिलाड़ियों, कलाकारों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, शिक्षकों, छात्रों और नागरिकों से प्रेरणा लें, जो सिर्फ और सिर्फ अपने कर्म पर फोकस करते हैं और निष्काम कर्म से अपने जीवन के प्रयोजन को पाते हैं। अगर ऐसा होता है, तो समाज का सिर्फ परिणामों से किसी व्यक्ति का आकलन करने रवैया बदलेगा, जो हमें तर्क के करीब लाएगा। इसलिए हमें सिर्फ अचीवमेंट माइंडसेट या सफलता के लिए अग्रेसिव एटीट्यूड की जरूरत नहीं है, बल्कि उस एथिकल माइंडसेट की भी जरूरत है, जिसमें लगातार कड़ी मेहनत, अनुशासन, फोकस और उन गुणवत्तापूर्ण आदतों पर ध्यान हो, जो जिंदगी को सिर्फ संख्यात्मक नहीं, बल्कि गुणात्मक भी बनाते हैं और किसी के प्रयासों के आकलन में वह संतुलित दृष्टि भी देते हैं। यह न भूलिए कि संघर्ष उनके भी होते हैं, जो तमाम मेहनत और प्रयासों के बावजूद थोड़े से चूक जाते हैं, लेकिन उन मौन कदमों से सफर जारी रखते हैं और नतीजों के शोर में धीरे-धीरे ही सही, उस फिनिशिंग लाइन को पार कर ही जाते हैं। जेन जी की सफलता को ही सब कुछ मानने की मानसिकता ठीक नहीं। धैर्य और परिपक्वता के पाठ जितनी जल्दी सीख लिए जाएं, उतना अच्छा है। इसलिए जरूरी है कि जीवन के भागदौड़ में या अब आने वाले परीक्षा के मौसम में जय या पराजय से ज्यादा उन निरंतर चलते रहे कदमों के संघर्ष के प्रयासों को रिकॉर्ड करने का भी साहस जुटाया जाए, जो मानो इस दुनिया से कह रहे हैं-किसी को गिराया न खुद को उछाला/कटा जिंदगी का सफर धीरे-धीरे/जहां आप पहुंचे छलांगें लगा कर/वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे। [email protected]
- Source: www.amarujala.com
- Published: Dec 01, 2025, 02:34 IST
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