राकेश राही की ग़ज़ल: हँसना पड़ता है यहाँ सब को दिखाने के लिए
दिल के ज़ख़्मों को ज़माने से छुपाने के लिए हँसना पड़ता है यहाँ सब को दिखाने के लिए कब से बैठे हैं मिरी आँख की अँगनाई में ख़्वाब बच्चों की तरह शोर मचाने के लिए अपने दीदार का शर्बत तो पिला दे हम को हम तो आए हैं तिरे शहर से जाने के लिए मेरे अश'आर ही दौलत ये ख़ज़ाना है मेरा ढूँढता रहता हूँ कुछ साँप ख़ज़ाने के लिए रौंदने के लिए तय्यार हैं सारे अपने कोई राज़ी ही नहीं मुझ को उठाने के लिए तज्रबे अपने कहाँ तक लिखें 'राही' हम भी अब तो मिसरा' भी नहीं कोई उठाने के लिए हमारे यूट्यूब चैनल कोSubscribeकरें।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Oct 06, 2025, 19:50 IST
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