Pratik Gandhi: फुले की असफलता का कारण क्या है? प्रतीक गांधी ने बताया फिल्म इंडस्ट्री का असली सच
अभिनेता प्रतीक गांधी अपनी नई वेब सीरीज 'सारे जहां से अच्छा' में एक एजेंट का किरदार निभाते नजर आएंगे। हाल ही में अमर उजाला डिजिटल से खास बातचीत में उन्होंने इस सीरीज की तैयारी अपने किरदार की गहराई और 'स्कैम 1992' की सफलता के बाद अपनी फिल्मों को मिले मिक्स रिस्पॉन्स के बारे में अनुभव साझा किए। साथ ही, थिएटर की मौजूदा चुनौतियों और अपने अगले प्रोजेक्ट का जिक्र भी किया। वह महात्मा गांधी का रोल निभाने वाले हैं। पढ़िए बातचीत के कुछ प्रमुख अंश: एजेंट के रोल की तैयारी करने में आपको सबसे ज्यादा क्या खास लगा सीरीज की शूटिंग शुरू करने से पहले मैंने नेटफ्लिक्स पर The Spy नाम की एक फिल्म देखी थी, जो जासूसों की जिंदगी को बहुत ही नए और दिलचस्प तरीके से दिखाती है। यह अनुभव मेरे लिए बहुत नया था और इससे मुझे विष्णु के किरदार को समझने में मदद मिली। मैंने स्क्रिप्ट को बहुत ध्यान से पढ़ा क्योंकि इसमें बहुत कुछ था जो जानना और महसूस करना जरूरी था। रीडिंग मटीरियल स्क्रिप्ट से कहीं ज्यादा था। चूंकि यह एक लंबी सीरीज थी, इसलिए किरदार की पूरी कहानी को समझना था। आधा पढ़कर मैं फैसला नहीं कर पाया क्योंकि पढ़ने में इतना मजा आ रहा था कि रुकना मुश्किल था। इसे पढ़ते-पढ़ते मुझे यकीन हो गया कि यह शो बहुत अच्छा बनेगा। शूटिंग के दौरान कोई ऐसी बात जो आपको चौंकाने वाली लगी हो हां, बहुत कुछ। जैसे डॉक्टर भाबा के प्लेन क्रैश की घटना, जो सच है। लेकिन इसके आस-पास कितनी जिंदगियों पर असर पड़ा होगा, ये सोचकर मैं बहुत प्रभावित हुआ। इन एजेंट्स के अंदर जो भावनात्मक उलझन होती है, इतनी सारी जानकारी लेकर कैसे जिया जाता है ये समझना बहुत ही दिलचस्प था। ये लोग हमारे आसपास होते हैं, सामान्य लगते हैं, लेकिन उनकी जिंदगी बिल्कुल अलग होती है। उनका नाम कभी अखबारों में नहीं आता, न उन्हें कोई मेडल मिलता है। ये चुपचाप अपना काम करते हैं, इतने प्रेशर के बीच। ये मेरे लिए बेहद खास अनुभव था। फिजिकल-मेंटल प्रिपरेशन कैसी रही इसमें फाइट सीन नहीं थे, क्योंकि एजेंट का काम ही ये है कि फाइट तक ना पहुंचे। मिशन फेल हो चुका होता अगर फाइट करनी पड़ी। इसलिए हमें ज्यादा साइकोलॉजिकल और मेंटल ट्रेनिंग मिली। रिएक्टिव ना होकर रिस्पॉन्सिव रहना, डायलॉग के बीच का गैप, जहां अंदर प्रोसेसिंग होती है, उसे समझना। 70 के दशक के लोगों के चलने-फिरने और बोलने के अंदाज को समझना भी बहुत जरूरी था। आपको एजेंट की मानसिक स्थिति को समझने में क्या सबसे ज्यादा दिलचस्प लगा ये लोग अपनी सफलता का जश्न कभी नहीं मना पाते। न उन्हें मेडल मिलते हैं, न नाम अखबार में आता है। ये लोग बहुत प्रेशर के बीच चुपचाप अपना काम करते हैं। इस बात को एक्सप्लोर करना मेरे लिए कमाल का अनुभव था।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 14, 2025, 01:13 IST
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