Elections: सियासी माहौल बनाने वाला साल, किसका पलड़ा भारी?

भले ही उत्तर भारत के लोग मकर संक्रांति के दिन पकने वाली खिचड़ी की तैयारियों में लगे हों, लेकिन इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों और अगले साल के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अंदर-अंदर सियासी खिचड़ी तो कबसे पकने लगी है। इसका संकेत वरिष्ठ भाजपा नेता और गृहमंत्री अमित शाह ने यह कहते हुए दे दिया है कि एक जनवरी, 2024 को अयोध्या में भव्य राममंदिर बनकर तैयार हो जाएगा। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा की रणनीति तीन बड़े कार्यक्रमों पर आधारित होगी। पहला, नए संसद भवन का उद्घाटन, जो अप्रैल 2023 में होने वाला है; दूसरा, जी-20 का सम्मेलन, जिसकी अध्यक्षता भारत को मिली है। 9-10 सितंबर को होने वाले इस शिखर सम्मेलन से पहले देश भर में अगल-अलग मुद्दों को लेकर दो सौ भव्य कार्यक्रम होंगे। दुनिया भर के नेता शिखर सम्मेलन के मौके पर भारत आएंगे, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री मोदी करेंगे। इससे जनमत बनाने में भाजपा को बहुत मदद मिलेगी। और तीसरा है, राममंदिर, जिसकी राजनीति ने भाजपा की हमेशा मदद की है। इस वर्ष नौ राज्यों में विधानसभा के चुनाव भी हैं। अभी फरवरी-मार्च में पूर्वोत्तर के त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में चुनाव होंगे। त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय के तुरंत बाद कर्नाटक में चुनाव होंगे, जो मनोवैज्ञानिक रूप से काफी महत्वपूर्ण है। वहां से जैसी खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक कांग्रेस बेहतर स्थिति में है। अगर कांग्रेस अंतिम क्षण की लड़ाई में मात न खा जाए या आपसी झगड़ों में उलझकर न रह जाए, तो पर्यवेक्षकों का मानना है कि कांग्रेसके लिए वहां अच्छी संभावनाएं हैं। इससे कांग्रेस को मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव में अपने पक्ष में माहौल बनाने में मदद मिल सकती है। राजस्थान में कांग्रेस की हालत अच्छी नहीं है और लोग मानकर चल रहे हैं कि वहां इस बार भाजपा सत्ता में आएगी। इसके तीन कारण हैं-सत्ता विरोधी रुझान, कांग्रेस का अंतर्कलह और हर बार सत्ता बदलने की परंपरा। एक और बहुत बड़ा कारण है, वह है हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण। पाठकों को याद होगा कि उदयपुर में कन्हैयालाल नामक दर्जी की दो मुस्लिमों ने हत्या कर दी थी। उसी दिन कई लोगों ने कह दिया था कि अगले विधानसभा चुनाव का नतीजा तय हो गया। मध्य प्रदेश में कांग्रेस अच्छी स्थिति में है। कहीं न कहीं, अब भी लोगों में कांग्रेस के प्रति इस बात को लेकर सहानुभूति है कि पिछली बार चुनाव जीतने के बावजूद भाजपा ने उसे सत्ता से बेदखल कर दिया था। दूसरी तरफ, यदि शिवराज सिंह चौहान चुनाव जीत जाते हैं, तो वह पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनेंगे, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है। वहां भाजपा ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश कर सकती है। राजस्थान की तरह मध्य प्रदेश में कांग्रेस पस्त नहीं है, इसलिए वहां अच्छी टक्कर होगी। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के लिए संभावनाएं नजर आ रही हैं। तेलंगाना में कांग्रेस लड़ाई के मैदान में कहीं नहीं है। वहां मुख्य लड़ाई केसीआर की पार्टी और भाजपा के बीच है। बेशक वहां भाजपा की सीटें बढ़ेंगी, लेकिन चुनाव जीतने के लिए उसे लंबी छलांग लगानी होगी, क्योंकि दोनों पार्टियों के बीच सीटों का अंतर बहुत ज्यादा है। केसीआर ने जो अपनी पार्टी को राष्ट्रीय नाम दिया है, वह सिर्फ प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जताने के लिए नहीं, बल्कि तेलुगू गौरव को जगाने के लिए नेशनल कार्ड खेला है, ताकि तेलंगाना उनके पाले में ही रहे। अगर भाजपा को इन राज्य विधानसभा चुनावों में नुकसान होता है, तो वह चाहेगी कि जी-20 अध्यक्षता के माध्यम से इस तरह का माहौल बनाए कि उसकी भरपाई हो जाए। भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रवाद, विश्वगुरु, दुनिया में हिंदुस्तान की जगह, भविष्य के नए भारतकी छवि आदि को लेकर माहौल बनाएगी। इसके अलावा भाजपा ओबीसी कार्ड का इस्तेमाल भी कर सकती है। ओबीसी उप-श्रेणी को लेकर जी रोहिणी कमीशन का फैसला इस साल आएगा। अगर इस आयोग का यह फैसला आता है कि अत्यंत पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी ओबीसी आरक्षण मेंबढ़ाई जाए, तो भाजपा को बहुत फायदा होगा, क्योंकि उन छोटी-छोटी जातियों में भाजपा की पकड़ ज्यादा है। जहां तक विपक्ष की रणनीति की बात है, तो राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से एक अच्छी भावना बनी है, लेकिन चुनाव में इसका असर कितना होगा, इस बारे में अभी कोई कुछ नहीं कह सकता। कांग्रेस का संगठन मजबूत नहीं है और जिन राज्यों में उसके लिए संभावनाएं हैं, वहां वह अपने संगठन को कितना मजबूत कर पाती है, यह देखने वाली बात होगी। नीतीश कुमार चाह रहे हैं कि पुराना जनता दल पुनर्जीवित हो जाए, जो विपक्षी एकता की धुरी हो, जैसे 1988 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनता दल बनाया था। लेकिन अभी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। अगर गैर-कांग्रेसी विपक्षी पार्टियां एकजुट हो जाएं, जिसमें क्षेत्रीय दल भी साथ जुड़ जाएं, तो फिर विपक्षी एकता का एक स्वरूप लोगों के सामने स्पष्ट हो जाएगा। इस संबंध में नीतीश कुमार की बात राजद, आईएनएलडी और जनता दल एस से हो चुकी है, हालांकि यह इतना आसान नहीं होगा। नीतीश की रणनीति सबसे आखिर में कांग्रेस से बात करने की है। जहां तक विपक्ष के चेहरे की बात है, तो यह अभी तय नहीं हुआ है, चेहरे पर सहमति बन पाना चुनाव से पहले मुश्किल होगा। बेशक नीतीश कुमार सबसे ज्यादा स्वीकार्य चेहरे होंगे, लेकिन विपक्ष के पास आज ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जो चुनाव में मोदी को टक्कर दे सके। भाजपा के खिलाफ हर निर्वाचन क्षेत्र में विपक्ष यदि अपना एक संयुक्त प्रत्याशी उतारे, तो खेल पलट सकता है। इसकी चर्चा अभी विपक्षी खेमे में चल रही है। वर्ष 2019 में जब मोदी लोकप्रियता के चरम पर थे, तब भी 60 फीसदी वोट विपक्ष के पास था। हालांकि अभी जल्दबाजी है, लेकिन अगर विपक्ष भाजपा को 220-230 सीटों तक सीमित कर दे, यानी उसकी 60-70 सीटें कम कर दे, तो खेल बदल जाएगा। और अगर कांग्रेस सौ सीटों तक पहुंच गई, तो न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही तक सभी संस्थानों को बहुत बड़ा संकेत जाएगा। कुल मिलाकर, वर्ष 2023 भारत की राजनीति के लिए बहुत अहमियत रखता है, क्योंकि इसी वर्ष आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर माहौल तैयार होगा। भाजपा की रणनीति लगभग तय है। पर विपक्ष की रणनीति इस बात पर निर्भर करेगी कि वह किस दमखम, मजबूती और एकजुटता के साथ भाजपा का मुकाबला करता है। जमीनी स्तर पर विपक्ष को काफी मेहनत करनी पड़ेगी।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Jan 12, 2023, 04:04 IST
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