Outsourcing: सरकारी क्षेत्र में भी आउट सोर्सिंग का जाल

नौकरी और कामकाज का पूरा परिदृश्य हाल के दशक में बदल गया है। श्रम अदालतें निष्प्रभावी हो चुकी हैं और मजदूरों का जीवन असुरक्षित हो गया है। कामकाज की शर्तें कठोर हो गईं हैं।पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे ऑफ इंडिया, 2021 की रिपोर्ट बताती है कि देश में लगभग दस करोड़ के आसपास दिहाड़ी मजदूर और लगभग पांच करोड़ के आसपास वेतनभोगी मजदूर काम कर रहे हैं, जिनके लिए कोई लिखित सेवा शर्तें निर्धारित नहीं हैं। कुल 15 करोड़ मजदूर यानी श्रमशक्ति का तीस प्रतिशत, बिना किसी कार्य अनुबंध (जॉब कांट्रैक्ट) के संविदा पर कामकर रहे हैं। नियमित मजदूरों की भर्तिंयां कम हो रही हैं। यही कारण है कि 2004 से 2017 के बीच कांट्रैक्ट मजदूरों की संख्या में 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। देश में आउट सोर्सिंग सेमजदूर उपलब्ध कराने वाली एजेंसियों की बाढ़ आई हुई है। ये एजेंसियां बिचौलिये की तरह सस्ता श्रम उपलब्ध कराकर बदले में कमीशन या मोटी रकम वसूल रही हैं। बेरोजगारों की फौज सब कुछ बर्दाश्त करने को अभिशप्त है। सरकारी संस्थानों में भी आउट सोर्सिंग से भर्तियां होने लगी हैं। वर्ष 2021 में सार्वजनिक उपक्रमों में कुल 4,81,395 कांट्रैक्ट मजदूर थे, जबकि 2011 में मात्र 2,68,815 कांट्रैक्ट मजदूर थे। कांट्रैक्ट मजदूरों को कम वेतन देकर बिना कोई सुविधा दिए काम लिया जाता है। उन्हें स्वास्थ्य, पेंशन या अवकाश की सुविधाएं नहीं मिलतीं। कार्य अवधि मनमानी है और आठ घंटे काम का तय फार्मूला नदारद हो चुका है। कम खर्चे पर उत्पादन होने के कारण विदेशी मुद्रा का आगमन तो हुआ है, मगर मजदूरों की कीमत पर। स्थायी सेवाएं, सेवा और समाज से जुड़ाव पैदा करती हैं। जब सेवा शर्ते लोकतांत्रिक होती हैं, तो सेवक लोकतांत्रिक व्यवहार करता है, अन्यथा तात्कालिक लाभ के लिए वह अलोकतांत्रिक तरीके अपनाता है और येन-केन प्रकारेण आर्थिक लाभ बटोरना चाहता है। सेवक के अंदर दायित्वबोध तभी होता है, जब उसे लगता है कि नियोजक, उसके दुख-सुख का साथी है या उसका और उसके परिवार का वह खयाल रखता है। निजी सेवाओं में सेवा समाप्ति का भय या इसे हटाओ, दूसरे को लाओ के चलते निरंतर मजबूर सेवकों की सेवाएं उपलब्ध रहती हैं। प्रबंधकों की अच्छी पगारें, जल्दी-जल्दी बदलते मातहतों सेहाड़तोड़ मेहनत करा लेती हैं। वहां सेवा की अनिश्चितता के चलते नौकरी बचाने के लिए सेवक दिन-रात कार्य करते रहते हैं। विकास की नई प्रक्रिया इतनी अमानवीय बना दी गई है कि निजी सेवाओं से जुड़े सेवक अपने मां-बाप की मृत्यु पर भी श्राद्ध जैसे कार्यों को पूरा नहीं कर पाते। पत्नी और बच्चों के लिए समय की गुंजाइश कम रहती है। ऐसे में अन्य सामाजिक अभिरुचियों यथा, खेल-कूद, कला, संस्कृति, साहित्य के लिए समय के बारे में सोचना ही बेमानी होगा। निजी क्षेत्रों में तो छंटनी की तलवार के सहारे श्रमिकों पर काम का बोझ रहता है, लेकिन जनकल्याण से जुड़ी सरकारी सेवाओं में ठेके की नियुक्तियां जहां एक ओर लूट-खसोट को बढ़ा रही हैं, वहीं दूसरी ओर गरीब जनता को उनके भाग्य पर छोड़ सामाजिक दायित्वों से पल्ला झाड़ रही हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ डॉक्टरों के रिक्त पदों पर भी संविदा पर नियुक्तियां शुरू हो चुकी हैं। मेडिकल कॉलेजों में संविदा की नियुक्तियों के चलते डॉक्टरी की पढ़ाई की गुणवत्ता गिरी है। शोध में रुचि खत्म होना भी संविदा अध्यापकों के कारण हुआ है। महत्वपूर्ण संस्थानों में जहां प्रमोशन या वेतन वृद्धि के अवसर न हों या स्थायी सेवा के अन्य लाभ न हों, वहां कोई शोध कार्य क्यों करेगा कुल मिलाकर संविदा की नौकरियां हों या दिहाड़ी मजदूरों से लिया जाने वाला कार्य, सेवा शर्तों, उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य का ख्याल रखना जरूरी है। सीवर सफाई में मजदूरों की हुई मौतों के बारे में सरकार और सर्वोच्च न्यायालय चिंता तो जताती है, मगर उससे मुक्ति के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Jan 04, 2023, 04:35 IST
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