Covid vs Measles: कोविड से जंग में खसरे की जीत

कल्पना कीजिए कि किसी गांव के सारे लोग शेर से लड़ने जंगल चले जाएं और पीछे से तेंदुए घरों में घुसकर बच्चों को निवाला बना लें। कोविड से हमारी जंग का पिछले दो साल का तजुर्बा कुछ ऐसा ही है। कोरोना का इतना शोर मच गया कि निमोनिया और काली खांसी जैसी दूसरी जानलेवा बीमारियों से सबका ध्यान ही हट गया। नतीजा यह है कि आज हम उस खसरे को महामारी की तरह वापसी करते देख रहे हैं, जिसका पूर्णतया सुरक्षित टीका आज से 37 साल ही पहले देश को मिल चुका था। संसद में इस माह रखे गए सरकारी आंकड़े में महाराष्ट्र समेत पांच राज्यों में पिछले दो माह के दौरान खसरे (मीजल्स) के दस हजार संक्रमितों और कम-से-कम 40 मौतों की बात कही गई है। वास्तविकता शायद इससे ज्यादा भयावह हो। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा तीन हजार मामले बताए गए हैं और झारखंड 2,600 मामलों के साथ दूसरे नंबर पर है। गुजरात, बिहार और केरल में भी हजारों मामले हैं। मुंबई जैसी जगहों पर तो स्थिति इतनी चिंताजनक है कि वहां सीरो सर्वे कराने की मांग होने लगी है। शेर वाकई हैवान होता है, मगर कई मायनों में तेंदुआ उससे ज्यादा खूंखार और फुर्तीला होता है। सितम ढाने में खसरा, कोरोना से कम नहीं। छींक और खांसी से फैलने वाला खसरे का वायरस भी बेहद तेज रफ्तार होता है। वास्तव में खसरा, लौटने के लिए सबसे बेताब रहने वाली महामारी है। किसी भी देश के रुटीन वैक्सीनेशन कार्यक्रम में जब भी ढीलापन आता है, तो सबसे पहले जो महामारी वापस आती है, वह खसरा ही है। इसीलिए अनुसंधानकर्ता खसरे को 'ट्रेसर ऑफ स्ट्रेंथ' बताते हैं। यानी देश के समग्र टीकाकरण कार्यक्रम की मजबूती नापने की कसौटी। खसरा उभरना पर्याप्त सबूत है कि टीकाकरण अपने रास्ते से भटक गया। खसरा जानलेवा तक हो जाता है। लाल मुंह, बुखार, खांसी और सारे जिस्म पर लाल चकत्ते तो संक्रमण के कुछ दिन बाद उभरते हैं, लेकिन ठीक होने के बाद भी खसरे के रोगाणु बच्चे के शरीर में सात साल तक जीवित रहते हैं और आजीवन कुपोषण की वजह बन सकते हैं। खसरे जितना ही खतरनाक उसका छोटा भाई जर्मन खसरा है, जिसे रुबेला भी कहा जाता है। गर्भावस्था के दौरान होने वाला जर्मन खसरा न सिर्फ जच्चा-बच्चा, दोनों की जान ले सकता है, बल्कि बच्चे को जीवन भर के लिएकुपोषित, अंधा, बहरा, अपाहिज, विक्षिप्त या मंदबुद्धि बना सकता है। यूनिसेफ का आधिकारिक अनुमान बताता है कि भारत में हर साल 27 लाख बच्चे खसरे से संक्रमित होते हैं। जर्मन खसरे के भयानक असर के साथ पैदा होने वाले बच्चों की संख्या 40 हजार प्रतिवर्ष है। विडंबना है कि पूरी दुनिया में भारत ही ऐसा मुल्क है, जो खसरे की दवा और बीमारी-दोनों का सबसे बड़ा ठिकाना है। ग्लोब पर मौजूद कुल खसरा वैक्सीन का 80 फीसदी उत्पादन अकेलेभारत में होता है, मगर खसरे के शिकार होने वाले सबसे ज्यादा बच्चे भी भारत ही में हैं। लगभग 25 लाख बच्चे हर साल इस टीके की पहली डोज तक नहीं ले पाते। दूसरा विरोधाभास है कि खसरा कोविड की तरह अनजान दुश्मन नहीं। उसके बारे में हम सब कुछ जानते हैं। साबित हो चुका है कि टीके की दोनों डोज बच्चे की खसरे से 95 प्रतिशत सुरक्षा का बीमा कर देती है।आज से 37 साल पहले 1985 में यह टीका भारत में आ गया था। इतनी जानकारी और इतने समयसिद्ध अनुभव के बावजूद देश पर सबसे ज्यादा खसरा संक्रमित आबादी रखने का ठप्पा है।खसरे के टीके की कवरेज में अर्धविराम क्यों लगा इसकी तीन वजहें विशेषज्ञों ने गिनाई हैं। पहली, कोविड प्रकोप के दौरान लॉकडाउन-निषेधाज्ञा में घर से बाहर निकलना मुश्किल था। दूसरी, कोविड संबंधी पलायन के कारण बच्चे अपने परिवार के साथ यात्राओं पर रहे। तीसरी, टीके के लिए अस्पताल जाने में कोविड संक्रमण का जोखिम था। मगर एक और बड़ा अहम कारणहै। यह है, हमारा अंधविश्वास। हमारी कबीलाई मान्यताएं। कोविड का दौर देश के कई हिस्सों में कोरोना माई के पूजन-मनौवल का साक्षी था। खसरे के साथ तो यह समस्या और गहरी है। सदियों से खसरा छोटी माता की पहचान रखता है। पुजारी का प्रसाद, पीर की भस्म, ओझा का झाड़ा या नीम की पत्तियों की छाया। इन्हीं सब में उसका इलाज माना गया है। इसीलिए महामारी विशेषज्ञ बार-बार इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बीमारी से आजादी के लिए सिर्फ टीका बनाना काफी नहीं है। समाज में एक व्यापक विज्ञानमूलक सोच होना भी जरूरी है। एक 'साइंस बेस्ड नेरेटिव' चाहिए। भोली-भाली जनता तो चलिए मान्यताओं की मारी होती है। लेकिन हमारे समझदार मीडिया का क्या क्या हमेशा की तरह इस बार भी अधिकांश मीडिया टीका लगने के बाद होने वाले मामूली बुखार को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं परोसता रहा महाराष्ट्र प्रेस सूचना ब्यूरो ने 15 अक्तूबर से 15 दिसंबर के बीच खसरे पर प्रकाशित 230 खबरों का अध्ययन किया। तथ्य उभरा कि 86 प्रतिशत खबरें ऐसे नेगेटिव तरीके से लिखी गईं, जिससे टीकाकरण को लेकर पाठकों में डर और अंदेशे पैदा हुए। सर्वेक्षण बताते हैं कि खसरा घने इलाकों की गरीब बस्तियों को अपना निशाना बना रहा है और टीके से वंचित शिशुओं के 34 प्रतिशत मामलों में मां-बाप को टीके के बारे में जानकारी ही नहीं होती। लगभग 28 प्रतिशत ऐसे हैं, जो बच्चे को होने वाले बुखार आदि के डर से टीका लगवाने नहीं गए। इस तरह अज्ञान और भय-दोनों कारण ऐसे हैं, जिनका निवारण मीडिया चाहे तो बखूबी कर सकता है। संदिग्ध दवाओं, इलाज के फर्जी दावों और अफवाहों का सैलाब कोविड काल में भी आया था, मगर कुल मिलाकर केंद्र सरकार लोगों को समझाने में सफल रही कि टीका ही बचाएगा। नतीजतन एक विराट टीकाकरण कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। मगर महाराष्ट्र में खसरे के संक्रमण का शिकार हुए कुल बच्चों में से 75 प्रतिशत ऐसे निकले, जिनको टीका नहीं लगा था।मतलब आज भी टीके को लेकर समाज गंभीर नहीं। ऐसा लगा था कि कोरोना की विनाशलीला देखने के बाद वैक्सीनेशन पर बहस हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी। लेकिन वह खुशफहमी थी। अब सवाल है कि खसरा लौट सकता है, तो पोलियो क्यों नहीं और इससे भी बड़ा सवाल, कोविड अभी पूरी तरह गया कहां है खसरे की तरह वह भी तो फिर से दरवाजा खटखटा रहा है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Dec 27, 2022, 02:28 IST
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