कुँवर बेचैन की ग़ज़ल: तेरे दिल में है अगर आकाश छूने की ललक

सारा जग तुझको कहे, है मो'तबर काफ़ी नहीं अपनी क़ीमत भी बता केवल हुनर काफ़ी नहीं। गिनतियों में नाम तेरा आये गर ये चाह है साथ इक-दो अंक रख केवल सिफ़र काफ़ी नहीं। तेरे दिल में है अगर आकाश छूने की ललक हौसला भी रख, तेरे ये बालो-पर काफ़ी नहीं। लोक और परलोक दोनों मन के मंदिर में सजा ये इधर काफ़ी नहीं और वो उधर काफ़ी नहीं। और कितने हादिसों का तू करेगा इंतज़ार क्या मिरे ग़म की यही पहली ख़बर काफ़ी नहीं। सात कमरों का है घर और उसमें रहने वाले दो क्या तेरे रहने को इक छोटा-सा घर काफ़ी नहीं। ज़िन्दगी जितनी मिली है उसमें कुछ करके दिखा माना इक ही ज़िन्दगी का यह सफ़र काफ़ी नहीं। काम कोई भी बुरा करने से पहले खुद भी डर इसमें ये ईश्वर का या दुनिया का डर काफ़ी नहीं। घर के सारे लोगों से रिश्ता बने, तो घर बने घर को घर कहने में ये दीवारो-दर काफ़ी नहीं। अच्छी बातें हों तो उनको शक्ल दे सहगान की युग बदलने को ये तेरा एक स्वर काफ़ी नहीं। तू दशानन बनने की ही होड़ में उलझा रहा आदमी बनने को क्या ये एक सर काफ़ी नहीं। तेरे अंदर कौन-क्या है जानने के वास्ते मन की आँखें खोल, बाहर की नज़र काफ़ी नहीं। वो भी क्या रचना कि जिसमें कोई बेचैनी न हो यूँ ' कुँअर बेचैन' तुममे ये 'कुँअर' काफ़ी नही। हमारे यूट्यूब चैनल कोSubscribeकरें।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Sep 20, 2025, 18:29 IST
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