केदारनाथ अग्रवाल: चंद्र गहना से लौटती बेर
देख आया चंद्र गहना। देखता हूँ दृश्य अब मैं मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला। एक बीते के बराबर यह हरा ठिंगना चना, बाँधे मुरैठा शीश पर छोटे गुलाबी फूल का, सज कर खड़ा है। पास ही मिल कर उगी है बीच में अलसी हठीली देह की पतली, कमर की है लचीली, नील फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर कह रही है, जो छुए यह दूँ हृदय का दान उसको। और सरसों की न पूछो— हो गई सबसे सयानी, हाथ पीले कर लिए हैं, ब्याह-मंडप में पधारी; फाग गाता मास फागुन आ गया है आज जैसे। देखता हूँ मैं : स्वयंवर हो रहा है, प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा हैइस विजन में, दूर व्यापारिक नगर से प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है। और पैरों के तले है एक पोखर, उठ रही इसमें लहरियाँ। नील तल में जो अभी है घास भूरी ले रही वह भी लहरियाँ। एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा आँख को है चकमकाता। हैं कई पत्थर किनारे पी रहे चुपचाप पानी, प्यास जाने कब बुझेगी! चुप खड़ा बगुला डुबाए टाँग जल में, देखते ही मीन चंचल ध्यान-निद्रा त्यागता है, चट दबा कर चोंच में नीचे गले के डालता है! एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया श्वेत पंखों के झपाटे मार फ़ौरन टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर, एक उजली चटुल मछली चोंच पीली में दबा कर दूर उड़ती है गगन में! औ यहीं से— भूमि ऊँची है जहाँ से— रेल की पटरी गई है। ट्रेन का टाइम नहीं है। मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ, जाना नहीं है। चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी कम ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ हर दिशाओं तक फैली हैं। बाँझ भूमि पर इधर-उधर रींवा के पेड़ काँटेदार कुरूप खड़े हैं। सुन पड़ता है मीठा-मीठा रस टपकाता सुग्गे का स्वर टें टें टें टें; सुन पड़ता है वनस्थली का हृदय चीरता, उठता-गिरता, सारस का स्तर टिरटों-टिरटों; मन होता है— उड़ जाऊँ मैं पर फैलाए सारस के संग जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है हरे खेत में, सच्ची प्रेम-कहानी सुन लूँ चुप्पे-चुप्पे।
- Source: www.amarujala.com
- Published: May 17, 2025, 14:28 IST
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