Urdu Poetry: मिरा ख़ज़ाना ज़माने के हाथ जा न लगे

मिरा ख़ज़ाना ज़माने के हाथ जा न लगे तुझे किसी की किसी को तिरी हवा न लगे मैं एक जिस्म को चखना तो चाहता हूँ मगर कुछ इस तरह कि मिरे मुँह को ज़ाइक़ा न लगे हमें लगा सो लगा ख़ुद-अज़िय्यती का नशा दु'आ करो कि तुम्हें कोई बद-दु'आ न लगे दु'आ करो कि किसी का न दिल लगे तुम से लगे तो और किसी से लगा हुआ न लगे हसद किया हो तिरे रिज़्क़ से कभी मैं ने तो मुझ को अपनी कमाई हुई ग़िज़ा न लगे हमें ही 'इश्क़ की तशहीर चाहिए वर्ना पता न लगने दिया जाए तो पता न लगे पड़ा रहा मैं किसी और ही बखेड़े में बहुत से क़ीमती जज़्बे किसी दिशा न लगे बना रहा हूँ तसव्वुर में एक मुद्दत से इक ऐसा शहर जिसे कोई रास्ता न लगे हमें ही 'इश्क़ की तशहीर चाहिए वर्ना पता न लगने दिया जाए तो पता न लगे किसे ख़ुशी नहीं होती सराहे जाने की मगर वो दोस्त ही क्या है जो आइना न लगे ~ जव्वाद शैख़ हमारे यूट्यूब चैनल कोSubscribeकरें।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 17, 2025, 18:17 IST
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