जानना जरूरी है: वरदान और शाप का मिश्रण था राजा वेन... उसके शरीर के मंथन से पृथु का जन्म हुआ

मृत्यु की एक पुत्री थी। उसका नाम सुनीथा था। एक दिन सुनीथा अपनी सखियों के साथ वन में गई। वहां उसने गंधर्वकुमार सुशंख को तपस्या में लीन देखा। सुनीथा सुशंख को सताने लगी। सुशंख ने सुनीथा को समझाया, लेकिन वह नहीं मानी। आखिर सुशंख को क्रोध आ गया। उन्होंने सुनीथा को शाप दे दिया: विवाह के बाद तुम्हारे गर्भ से पापाचारी और दुष्ट पुत्र उत्पन्न होगा। यह शाप सुनकर सुनीथा बहुत दुखी हुई और घर लौट आई। इस बीच महर्षि अत्रि के पुत्र अंग नंदन वन में गए और उन्होंने वहां देवराज इंद्र का दर्शन किया। उनके वैभव और भोग-विलास को देखकर अंग के मन में इंद्र के समान पुत्र पाने की इच्छा उत्पन्न हो गई। उन्होंने लौटकर अपने पिता अत्रि से कहा, मुझे इंद्र के समान वैभवशाली पुत्र चाहिए। इसका कोई उपाय बताएं। अत्रि ने अंग को भगवान श्रीविष्णु की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न करने का सुझाव दिया। यह सुनकर अंग ने भगवान की कठोर तपस्या शुरू कर दी। अंग की तपस्या से प्रसन्न होकर श्रीविष्णु प्रकट हुए और बोले, मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूं, कोई वर मांग लो। अंग ने हर्ष में भरकर कहा, देवेश्वर! मुझे इंद्र के समान तेजस्वी पुत्र देने की कृपा करें। भगवान विष्णु अंग को पुत्र का आशीर्वाद देकर अंतर्धान हो गए। इस बीच, सुशंख के शाप से दुखी सुनीथा वन में गई और तपस्या करने लगी। एक दिन उसके पास रंभा आदि सखियां आईं। उन्होंने सुनीथा से उसके दुख का कारण पूछा, तो सुनीथा ने सारी बात कह दी। सारा वृतांत सुनकर सखियों ने कहा, तुम दुख को त्याग दो। तुम सर्वगुण संपन्न और उत्तम अंगों से युक्त हो। हम तुम्हें ऐसी विद्या प्रदान करेंगे, जो पुरुषों को मोहित कर लेती है। यह कहकर सखियों ने सुनीथा को वह विद्या प्रदान की और कहा, कल्याणी! अब तुम जिस भी पुरुष को चाहो, उसे तत्काल मोहित कर सकती हो। सखियों के यों कहने पर सुनीथा ने उस विद्या का अभ्यास किया और उसमें सिद्ध हो गई। फिर सुनीथा सखियों के साथ ही वन में घूमने लगी। एक दिन उसने गंगाजी के तट पर महर्षि अत्रि के पुत्र अंग को देखा। उसने अपनी सखियों से अंग के विषय में पूछा, तो रंभा बोली, यह महर्षि अत्रि के पुत्र अंग हैं। इन्होंने तपस्या द्वारा भगवान विष्णु को प्रसन्न करके इंद्र के समान पुत्र का वरदान पाया है। तुम महाराज अंग को मोहित कर लो, तो तुम्हारी सारी समस्या दूर हो जाएगी। यह सुनकर सुनीथा, अंग के निकट बैठकर मधुर स्वर में गीत गाने लगी। मनोहर गीत सुनकर अंग का चित्त विचलित हो गया। वह आसन से उठे और इधर-उधर देखने लगे। माया से उनका मन चंचल हो उठा था। फिर उन्होंने जैसे ही सुनीथा को देखा, तो वह मोह के वशीभूत होकर उसके पास गए। अंग ने पूछा, सुंदरी! तुम कौन हो यहां किस काम से आई हो सुनीथा कुछ न बोली। उसके स्थान पर रंभा ने कहा, महर्षे! यह मृत्यु की सौभाग्यवती कन्या सुनीथा है। यह अपने लिए धर्मात्मा और जितेंद्रिय पति की खोज में है। यह सुनकर अंग ने रंभा से कहा, भगवान विष्णु ने मुझे पुत्र का वरदान दिया है। इसलिए मैं भी किसी योग्य कन्या की तलाश में हूं। मैं सुनीथा को पत्नी बनाने के लिए तैयार हूं। अंग और सुनीथा का विवाह हो गया। कुछ समय बाद सुनीथा ने एक सर्वलक्षण-संपन्न पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम वेन रखा गया। वह महातेजस्वी बालक शीघ्र ही वेद-शास्त्र आदि का अध्ययन कर समस्त विद्याओं का ज्ञाता हो गया। यह देखकर उसके माता-पिता अत्यंत प्रसन्न थे। परंतु गंधर्व कुमार सुशंख का शाप अभी फलीभूत होना शेष था। एक दिन वेन के दरबार में एक छद्मवेशधारी पुरुष आया, जिसकी बातों से वेन मोहित हो गया। उसने समस्त वैदिक धर्म तथा सत्य-धर्म क्रियाओं को त्याग दिया। पापात्मा वेन के शासन में ब्राह्मण लोग न दान कर पाते थे, न स्वाध्याय। धर्म का लोप हो गया और सब ओर पाप छा गया। इस तरह वेन, भगवान विष्णु के वरदान और सुशंख के शाप का मिश्रण सिद्ध हुआ। आखिर वेन के पापों से दुखी ऋषियों ने वेन का अंत कर दिया। उसके शरीर के मंथन से पृथु का जन्म हुआ, जिनके नाम पर धरती को पृथ्वी नाम मिला।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Apr 27, 2025, 08:19 IST
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