हाथी, ड्रैगन और अमेरिका: भारत की नई कूटनीतिक दिशा, मोदी-शी मुलाकात में बढ़े रिश्ते और मजबूत हुआ ग्लोबल गठबंधन
डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका द्वारा 50 फीसदी टैरिफ थोपे जाने के बाद भारत ने भी वही कदम उठाया, जो दुनिया के अन्य देशों ने उठाया, यानी चीन, रूस और अन्य ग्लोबल साउथ देशों के साथ नजदीकी बढ़ाई, ताकि तेजी से पक्षपातपूर्ण और विषाक्त होती स्थिति से निपटने के तरीके खोजे जा सकें। चीन के तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन ने इसके लिए उचित मंच प्रदान किया, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के अलावा अन्य नेताओं से मुलाकात की, जो व्यापार को हथियार बनाने से परेशान हैं। ट्रंप के टैरिफ हमले के बाद नई दिल्ली के पास दो ही विकल्प थे। पहला, अमेरिका के आगे झुक जाना और रूस से तेल खरीदना बंद कर देना। लेकिन इसने ऐसा करने से इन्कार कर दिया, क्योंकि रूस हमारा सदाबहार मित्र है और किसी के दबाव में आना मोदी की मजबूत छवि के अनुकूल नहीं है। दूसरा विकल्प था, मजबूती के साथ डटे रहें और दूसरे अवसरों की तलाश करें। लगता है कि फिलहाल भारत ने यही विकल्प चुना है। हालांकि, विदेश नीति विशेषज्ञों ने सलाह दी कि भारत को अल्पकालिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन दीर्घावधि में यह अच्छा रहेगा। पिछले रविवार को मोदी-शी की मुलाकात के पीछे यही संदर्भ था। इसका तात्कालिक निष्कर्ष दोनों देशों के बीच सीधी उड़ानों की बहाली और वीजा जारी करने की प्रक्रिया को सरल बनाना था। यह एक नाटकीय बदलाव है। अमेरिका ने निश्चित रूप से संभावित परिणाम का पूर्वानुमान लगाया होगा। मोदी-शी की मुलाकात को भारत की अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने की नीति के एक हिस्से के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन इससे दिल्ली के लिए और भी ज्यादा भू-राजनीतिक चुनौतियां पैदा हो गई हैं। जाहिर है, ट्रंप इसे हल्के में नहीं लेंगे और संभव है कि भारत एवं रूस के खिलाफ और भी दंडात्मक कदम उठाएं, क्योंकि अमेरिका रूस द्वारा भारत को रियायती दरों पर तेल बेचने का विरोध करता है। द न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक, इस वर्ष भारत की मेजबानी में होने वाले क्वाड शिखर सम्मेलन में ट्रंप शामिल नहीं होंगे, जिसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के लिए चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। अगर ट्रंप इसमें आते हैं और चीन के खिलाफ कुछ बोलते हैं, तो यह दिल्ली और बीजिंग के बीच नए सिरे से बने तालमेल के लिए परीक्षा जैसा होगा। फिलहाल, भारत को रूसी तेल खरीदने के कारण नुकसान उठाना पड़ रहा है। हालांकि, कई अमेरिकियों ने यह महसूस किया है कि ट्रंप ने चीन को दंडित करने की कोशिश नहीं की है, जो भारत से अधिक तेल रूस से खरीदता है। चीन ने तो अमेरिका के विरुद्ध टैरिफ लगाकर जवाबी कार्रवाई की, जबकि भारत ने समझौतावादी रवैया अपनाया, जिसे उसकी कमजोरी समझा गया। दरअसल, मोदी द्वारा भारत-पाकिस्तान विवाद को खत्म करने का श्रेय नहीं देने के कारण ट्रंप नाराज हैं। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कई बार यह दावा दोहराया है। अब पता चला है कि वह चाहते हैं कि पाकिस्तान की तरह भारत भी उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने का समर्थन करे। लेकिन मोदी भारत के इस रुख का उल्लंघन नहीं कर सकते कि यह पाकिस्तान के साथ सुलझाया जाने वाला द्विपक्षीय मुद्दा है। भारत पाकिस्तानी आतंकी हमले के बदले में सौदेबाजी करते हुए नहीं दिख सकता। इसलिए, भारत-अमेरिका रिश्तों में वर्तमान जटिलता का एक व्यक्तिगत पहलू भी है। हाल के महीनों में भारत और चीन के रिश्ते में कई उतार-चढ़ाव आए हैं। एक साल पहले, भारत ने अपने व्यापारिक वर्ग के आग्रह पर चीन से रिश्ते में नरमी लाई। नतीजतन द्विपक्षीय व्यापार में तेजी से वृद्धि हुई और व्यापार घाटा 93 अरब डॉलर तक पहुंच गया है, जबकि सीमा पर झड़पें हुईं और दोनों पड़ोसी राजनयिक मोर्चों पर एक-दूसरे के विरोधी हैं। इस साल मई में जब भारत और पाकिस्तान के बीच संक्षिप्त सैन्य संघर्ष हुआ, तो उसमें परोक्ष रूप से चीन भी शामिल था। पाकिस्तानी सेना ने लड़ाकू विमानों और रडार प्रणालियों सहित चीन निर्मित उपकरणों का भारी इस्तेमाल किया। भारत ने चीन के खिलाफ कोई औपचारिक रुख नहीं अपनाया, पर सवाल अब भी उठ रहे हैं कि क्या भारत को बीजिंग के साथ संबंध सामान्य करने चाहिए। दोनों देशों के बीच इस नजदीकी का श्रेय ट्रंप प्रशासन को है। लेकिन हाथी और ड्रैगन के एकसाथ आने के वादे के अलावा, दोनों देशों को सार्थक बातचीत से पहले अब भी कई बड़ी बाधाओं को दूर करना होगा। मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के बाद से भारत-चीन संबंधों में व्यक्तिगत रूप से रुचि ली और 2018 तक पांच बार पड़ोसी देश का दौरा किया। लेकिन 2020 में लद्दाख के गलवान में हुए सीमा संघर्ष ने इस पर विराम लगा दिया और उसके बाद चीन का दौरा करने में मोदी को सात साल लग गए। सीमा का मुद्दा द्विपक्षीय संबंधों के मूल में बना हुआ है। दोनों देशों के दसियों हजार सैनिक अब भी विवादित सीमाओं पर तैनात हैं, हालांकि स्थिति को सामान्य बनाने के लिए बातचीत जारी है। रविवार की बैठक के बाद चीन और भारत, दोनों ने सीमा पर शांति बनाए रखने और अपने मतभेदों को विवाद में न बदलने की बात कही। यह नेक काम है, और संभव भी, लेकिन आसान नहीं है। भारत के लिए जमीनी हकीकत अब भी नहीं बदली है। पश्चिमी देशों के साथ उसके बुनियादी आर्थिक संबंध मजबूत बने हुए हैं, और अमेरिका उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। भू-राजनीतिक दृष्टि से, पिछले दो दशकों में विभिन्न अमेरिकी प्रशासनों ने भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी विस्तार के विरुद्ध अमेरिका की धुरी के रूप में देखा है। दिल्ली कई अन्य बहुपक्षीय मंचों का भी हिस्सा है, जिन्हें चीन-विरोधी और रूस-विरोधी माना जाता है। भारत के साथ ट्रंप का व्यवहार उन अनेक उतार-चढ़ावों में से एक है, जो दोनों लोकतंत्रों ने झेले हैं। यह वास्तविकता है, आने वाले महीनों में यह देखना बाकी है कि क्या ट्रंप टैरिफ और व्यापार के मामले में भारत के प्रति अपने रुख को नरम और तर्कसंगत बनाते हैं। भारत के लिए, बांग्लादेश की अग्रिम मोर्चेबंदी से सुरक्षा चिंताएं और बढ़ गई हैं, इसलिए स्थिति गंभीर है। कुल मिलाकर, भारत-चीन की जुगलबंदी की गति निर्धारित करने में अमेरिका की बहुत अधिक भूमिका होगी।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Sep 02, 2025, 04:42 IST
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