समाज: आजादी के बाद 'आधी-आबादी' का हाल आश्वस्त करने वाला, लेकिन... आखिर महिलाओं की प्रगति का पैमाना क्या है?
आजादी के बाद समग्रता में देखें, तो महिलाओं की प्रगति आशाजनक और भविष्य के प्रति आश्वस्त करने वाली रही है। शासन में वे शीर्ष पदों पर विद्यमान हैं, उच्च शिक्षा में वे इग्नू, जेएनयू, एएमयू, इलाहाबाद, जामिया, जैसे कई विश्वविद्यालयों की कुलगुरु हैं, प्रशासन में वे सचिव, डीएम, एसडीएम, तो सर्वोच्च न्यायालय में जज हैं। खेलों में वे पुरुषों से आगे हैं, सेना में वे नेतृत्वकारी भूमिका में हैं, दृश्य और श्रव्य मीडिया के दोनों माध्यमों में वे संपादकों की श्रेणी में भी हैं, बहसों-विमर्शों में उनकी प्रखरता किसी से छिपी नहीं है। परंतु यह एक पक्ष है, स्त्रियों की अधिकार चेतना के भुक्त-भोगी क्रियाकलापों का, दूसरा पक्ष अब भी दर्शाता है, स्त्रियों की प्रगति की राह आसान नहीं है। एससी/एसटी में ऐसी लाखों बालिकाएं, जिन्हें शिक्षा, सेवा का स्वतंत्रता सुलभ कोई अधिकार नहीं मिल पाया है। पचास साल पहले जो महिलाएं कला, साहित्य, मीडिया और उच्च शिक्षा में आ गईं, उन्हीं में से एक नगण्य संख्या ने विवाह संस्था का विरोध करके मातृत्व धारण करने से इन्कार कर सरोगेसी मदर से बच्चे पैदा कराने शुरू किए। अभिजात्यपन दर्शाने के लिए सिगरेट, दारू का इस्तेमाल करने, विवाह के बजाय लिवइन में रहने इत्यादि प्रकार की शैली का जीवन जीने लगीं। इनमें वैचारिक संतुलन भी नहीं है। इन्हीं में से कुछ उच्च पदों पर आसीन हो रही हैं। कठिनाइयां खासकर असंगठित क्षेत्रों व निजी कंपनियों में काम कर रही महिलाओं को है। उनके लिए न तो काम के आठ घंटों पर अमल होता है और न उन्हें सवेतन मातृत्व अवकाश दिया जाता है। भवनों, पुलों, सड़कों के निर्माण कार्यों में लगी श्रमिक महिलाओं को पुरुषों से कम मजदूरी मिलती है। मां बनने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति अतिरिक्त ध्यान, दवाएं, पोषित आहार, तनाव रहित वातावरण देने की जरूरत होती है। माताएं स्वस्थ रहेंगी, तो उनकी स्वस्थ संतानें राष्ट्र निर्माण में सकारात्मक योगदान देने में समर्थ होंगी। अंतरराष्ट्रीय टेनिस खिलाड़ी व कामयाब बेटी राधिका यादव की हत्या ने कितने दिलों को तोड़कर रख दिया। ऐसी क्या आफत आ गई थी पिता के सामने कि बेटी का ही खून कर दिया। अधिक से अधिक बेटी अपनी पसंद का जीवनसाथी चुन लेती। इससे भी दुखद गोविंदपुरम में अविनाश व अंजलि, दोनों भाई-बहन ने आत्महत्या कर ली। अंजलि एक्सपोर्ट कंपनी में टीम लीडर के तौर पर कार्यरत थी और अविनाश तो सरकारी सेवा में था। आत्महत्या के लिए उन्होंने सुसाइड नोट में अपनी सौतेली मां को जिम्मेदार बताया। इस केस में इन दोनों बच्चों को ज्यादा से ज्यादा घर से निकलना पड़ता। युवा थे, आत्मनिर्भर थे, मरने की क्या जरूरत थी जाहिर है युवा पीढ़ी को कोई समझाने और समझने वाला नहीं है। भारत में ऐसे गांवों की संख्या अब भी कम नहीं है, जहां लड़कियों के लिए स्कूल नहीं हैं या प्राथमिक स्कूल के बाद गांव से बाहर केवल लड़कों के लिए ही पढ़ने के अवसर हैं। अमेरिका की तरह हमारे यहां यदाकदा विविधता और सकारात्मक कार्रवाई की बातें होती हैं, पर ज्ञान के कई क्षेत्रों में स्त्रियों की भागीदारी को लेकर विविधता दिखाई नहीं पड़ती। महिलाओं की प्रगति का एक रूप वरिष्ठ लेखिका क्षमा शर्मा के लेख में पढ़ने को मिला, ट्रेडिशनल, लाइफ मूवमेंट में भी बहुत से लोग स्त्रियों को यह सिखा रहे हैं कि शादी किसी अच्छे इन्सान से न करके, किसी अमीर से करो, जिससे जिंदगी भर ऐश कर सको। किसी भी विचार से बड़ा पैसा है। नब्बे फीसदी एससी और पिच्चानवे फीसदी एसटी छात्राएं पहली पीढ़ी हैं, जो उच्च शिक्षा में आ रही हैं। उन पर जल्दी शादी का दबाव होता है और वे जल्दी मां बनती हैं। जीविका के लिए घर पर निर्भर रहेंगी, तो निर्णय लेने की क्षमता की कमी का एक भयावह एहसास होगा। अतः लड़कों से पहले लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए। देश में कला, संस्कृति, साहित्य, सिनेमा, ज्ञान-विज्ञान, खेल, मीडिया में उत्तरोत्तर अाधुनातन उन्नति का चमत्कार देखना है, तो वह स्त्रियां ही दिखा सकती हैं, जिसके प्रति संविधान निर्माता आश्वस्त थे। महिलाओं के लिए हिंदू कोड बिल का निर्माण करने तथा स्त्री के वोट का मूल्य पुरुष के वोट के बराबर निर्धारित कराने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने महिलाओं के सर्वांगीण विकास को प्राथमिकता देने पर बल दिया। डिप्रेस्ड क्लासेज विमेन कॉन्फ्रेंस 1942 को संबोधित करते स्वतंत्रता की घोषणा होने के पांच साल पूर्व, उच्च हिंदू स्त्रियों से कहा था कि वे बहिष्कृत समाज की स्त्रियों के साथ स्त्री सुलभ बहनापा कायम करें, उन्हें अपने रहने, पहनने और पढ़ने-लिखने की सीख देना अपना नैतिक दायित्व समझें, जिससे कि सांस्कृतिक साझापन का विकास हो। स्वराज मिलने और संविधान लागू होने के पश्चात सामाजिक विकास को ध्यान में रखकर डॉ. आंबेडकर ने कहा था, समाज की प्रगति को मैं महिलाओं की प्रगति का पैमाना मानता हूं। -लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष हैं।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Sep 08, 2025, 06:24 IST
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