पर्यावरण: प्रदूषण का दंड तो भरना ही पड़ेगा... कुत्तों के शोर में दबा रह गया सुप्रीम कोर्ट का अहम निर्णय
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने दो महत्वपूर्ण निर्णयों से एक नई दिशा देते हुए निर्णायक कदम उठाने की संस्तुति की है। दोनों निर्णयों में समानता यह है कि इनमें कुछ काटने या काटने से होने वाले प्रभाव का जिक्र है। एक निर्णय, जिस पर पूरे देश का मीडिया, सोशल मीडिया और सरोकार रखने न रखने वाले जन चर्चा कर रहे हैं, वह कुत्तों के काटने से संबंधित है। दूसरा निर्णय, जो इसके एक सप्ताह पूर्व दिया गया, वह देश की पूरी तस्वीर बदलने का दमखम रखता है। दुर्भाग्यवश वह अति महत्वपूर्ण निर्णय कुत्तों के शोर में दब गया। पर्यावरण को सुधारने संबंधी इस अहम निर्णय में प्रदूषण नियंत्रण मंडलों को वातावरण में प्रदूषण फैला रहे, व्यापार एवं उद्योगों को दंडात्मक रूप से काटने की क्षमता दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय के तहत पॉल्यूटर पे सिद्धांत को स्वीकार करते हुए प्रदूषण नियंत्रण मंडलों को वायु एवं जल संबंधी नियमों के तहत वातावरण को प्रदूषित कर रही औद्योगिक इकाइयों एवं व्यापारों को दंडित करने का अधिकार दिया है। वैसे सन 2000 में लागू प्रथम शहरी ठोस कचरा (प्रबंधन एवं हस्तांतरण) नियम की प्रस्तावना में ही पॉल्यूटर पे सिद्धांत का उल्लेख किया गया था। भारत में पॉल्यूटर पे सिद्धांत नया नहीं है। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से पूर्व कचरा प्रबंधन या वातावरण शुद्धता का दायित्व आमजन का ही था, लेकिन ब्रिटिश हुक्मरानों ने कर वसूली का तरीका ईजाद करते हुए कचरा वसूलने का काम नगर निगमों को सौंपा, जिसकी शुरुआत मद्रास (अब चेन्नई) में 29 सितंबर, 1688 को की गई। सन 1947 में अंग्रेज भारत छोड़ गए, लेकिन सफाई जैसे कार्य के लिए भी पूर्ण निर्भरता शासकीय तंत्र पर हो गई। कालांतर में प्रदूषण फैलाने का दोषी अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हुए बिना किसी अंकुश के वातावरण को दूषित करने में लग गया। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी एवं लोधी प्रॉपर्टी कंपनी लिमिटेड के केस में दिल्ली उच्च न्यायालय की डिविजन बेंच का निर्णय पलटते हुए स्पष्ट रूप से प्रदूषण नियंत्रण मंडल एवं कमेटी द्वारा पॉल्यूटर पे सिद्धांत के आधार पर दंड देने में सक्षम माना है। समूची दुनिया में घरों से लेकर बड़े उद्योगों एवं व्यापारों द्वारा कचरा उत्पादन से लेकर वातावरणीय अशुद्धता संबंधी शुल्क प्रदूषणकर्ता को ही वहन करना होता है। यहां तक कि कचरा प्रबंधन की समस्त सेवाएं उत्पन्न कचरे की मात्रा के आधार पर आनुपातिक शुल्क अदायगी के पश्चात ही सुलभ हो पाती हैं। सामान्यतया, शासन का दायित्व सेवाप्रदाता नहीं, अपितु नियंत्रक संगठन के रूप में होता है। सेवाप्रदाता बनने के साथ ही कचरा उत्पादक या प्रदूषण फैलाने वाले को निर्भरता का बहाना मिल गया, ताकि दोष सरकार पर मढ़ा जा सके। अपने दायित्व से मुक्त होने का परिणाम यह हुआ कि वातावरण में व्याप्त प्रदूषण को नियंत्रित करने के स्थान पर उससे दूर हटने के विकल्प ढूंढने पर ध्यान केंद्रित हो गया। इसके उदाहरण के रूप में दिल्ली से बाहर उद्योगों को स्थानांतरित करने के निर्णय को लिया जा सकता है। उसकी पृष्ठभूमि में अनकहे व्यापारिक तथ्य कुछ भी हो सकते हैं, किंतु समस्या निराकरण के स्थान पर समस्या से दूर भागने को तरजीह दी गई। इस संदर्भ में यह कथन भी विचारणीय है कि क्या प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को अन्यत्र स्थानांतरित करने से वहां वातावरण प्रदूषित नहीं होगा। समस्याओं के तदर्थ समाधान के बजाय स्थायी समाधान की खोज हो। साथ ही, प्रदूषण फैलाने वाले को ही उसके लिए दोषी माना जाए।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 29, 2025, 06:24 IST
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