दुष्यंत कुमार: फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है

फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है, वातावरण सो रहा था अब आँख मलने लगा है। पिछले सफ़र की न पूछो, टूटा हुआ एक रथ है, जो रुक गया था कहीं पर, फिर साथ चलने लगा है। हमको पता भी नहीं था, वो आग ठंडी पड़ी थी, जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है। जो आदमी मर चुके थे, मौजूद हैं इस सभा में, हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है। ये घोषणा हो चुकी है, मेला लगेगा यहाँ पर, हर आदमी घर पहुँचकर, कपड़े बदलने लगा है। बातें बहुत हो रही हैं, मेरे-तुम्हारे विषय में, जो रास्ते में खड़ा था पर्वत पिघलने लगा है। हमारे यूट्यूब चैनल कोSubscribeकरें।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Aug 31, 2025, 11:41 IST
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