Dularchand Murder: दुलारचंद हत्याकांड के बाद हवा में छाई चुप्पी, मुद्दा बनाने से बच रहे राजनीतिक दल

बाहुबली नेता दुलारचंद यादव की हत्या के बाद बिहार सहम सा गया था। लोगों में यह आशंका घर कर गई थी कि कहीं दुलारचंद यादव हत्याकांड इस चुनावी राज्य में जंगलराज पार्ट-2 की वापसी का कारण न बन जाए। लेकिन अनंत सिंह सहित तीन आरोपियों की गिरफ्तारी और बड़े पुलिस अधिकारियों पर गिरी गाज के कारण अब लोगों की नाराजगी कम होती दिख रही है। बिहार के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस संवेदनशील मुद्दे पर गंभीरता दिखाई है और अनावश्यक बयानबाजी से बचते हुए दिखाई दे रहे हैं। इससे बिहार की सियासी हवा जहरीली होने से फिलहाल बचती हुई दिखाई दे रही है। यदि दुलारचंद प्रकरण न हुआ होता तो मोकामा की लड़ाई इस बार कुछ अलग ढंग से लड़ी जाती। एनडीए के प्रत्याशी अनंत सिंह और राजद प्रत्याशी वीणा सिंह (बाहुबली सूरजभान सिंह की पत्नी) दोनों ही भूमिहार समुदाय से हैं। अब तक मोकामा के भूमिहार लगभग एकजुट होकर अनंत सिंह के साथ खड़े रहते थे, लेकिन इस बार सूरजभान सिंह के असर के कारण इस वोट बैंक में बंटवारा होने की संभावना थी। लेकिन दुलारचंद हत्याकांड के बाद जिस तरह उनकी शवयात्रा में भूमिहारों और ब्राह्मणों के लिए आपत्तिजनक शब्दों का उपयोग किया गया है, उससे एक बार फिर यह वोट बैंक अनंत सिंह के साथ एकजुट होता दिखाई दे रहा है। वर्तमान समीकरणों में यहां का राजपूत मतदाता भी अनंत सिंह के पक्ष में जा सकता है। बिहार की राजनीति के जानकार धीरेंद्र कुमार ने अमर उजाला से कहा कि मोकामा में सामान्य परिस्थितियों में महतो (धानुक जो कि कुर्मी समाज की एक उपजाति के रूप में जानी जाती है) और यादव समाज के बीच वर्चस्व की जंग रहती है। टाल में भूमि पर कब्जे को लेकर दोनों समुदाय के प्रभावशाली लोगों के बीच तनावपूर्ण रिश्ते रहे हैं। बिहार की जातिगत हिंसा के दौर में दोनों वर्गों के बीच ये रिश्ते बहुत तल्ख रहा करते थे। अब हिंसात्मक राजनीति तो बहुत पीछे छूट चुकी है, लेकिन दोनों वर्गों के बीच का तनाव किसी न किसी रूप में सामने आता रहा है। जातिगत हिंसा के दौर में जब यादव समाज लालू प्रसाद यादव के साथ रहता था, इस जातिगत हिंसा का सबसे ज्यादा नुकसान भूमिहार समाज को उठाना पड़ा था। उसी प्रतिकार के माहौल में पले बढ़े अनंत सिंह जैसे लोग भूमिहार समाज के हीरो बन गए। अनंत सिंह को भूमिहारों के साथ-साथ धानुकों का भी पूरा साथ मिलता था क्योंकि धानुक समाज भी कहीं न कहीं अनंत सिंह की छांव में अपने को सुरक्षित महसूस करता था। भूमिहारों औऱ धानुकों का एक छत्र समर्थन अनंत सिंह की राजनीतिक ताकत था। इस चुनाव में अनंत सिंह को दो तरफा नुकसान होने की संभावना थी। पहला तो वीणा सिंह भूमिहार समुदाय से होने के कारण भूमिहारों का कुछ वोट काट सकती थीं। दूसरा, जनसुराज पार्टी ने इस बार पीयूष प्रियदर्शी को अपना उम्मीदवार बना दिया है। पीयूष प्रियदर्शी उसी धानुक समाज से आते हैं जिससे अनंत सिंह को एकजुट समर्थन मिलता रहा है। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में स्वतंत्र उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़े पीयूष ने लगभग 11 हजार वोट प्राप्त किए थे। इस चुनाव में स्थानीय चुनाव होने, दुलारचंद के उनके साथ खड़े होने से उन्हें धानुक समाज का अच्छा खासा वोट मिल सकता था। बदली परिस्थितियों में क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि मोकामा का भूमिहार समाज लगभग अनंत सिंह के साथ एकजुट होने लगा है। और धानुक समाज के अनंत सिंह के परंपरागत साथी उन्हें अभी भी वोट कर सकते हैं। जहां तक मोकामा के यादव समाज की बात है, उसे परंपरागत तौर पर लालू यादव का समर्थक माना जाता है। वे राजद प्रत्याशियों के पक्ष में ही मतदान करते रहे हैं। इस बार भी वे बहुतायत राजद प्रत्याशी वीणा सिंह के पक्ष में मतदान कर सकते हैं। दुलारचंद यादव स्वयं यादव जाति से थे। ऐसे में उनके बेहद करीबी समर्थक पीयूष प्रियदर्शी को वोट कर सकते थे। यदि दुलारचंद यादव का अंतिम साथ देने जैसी भावनात्मक बातें चुनाव को प्रभावित करती हैं तो इससे पीयूष को यादव समाज के एक बड़े हिस्से का वोट मिल सकता है। लेकिन यह नुकसान राजद प्रत्याशी के खाते से होगा। इस समीकरण का अनंत सिंह पर बहुत नकारात्मक असर पड़ने की संभावना नहीं है। अगड़ा-पिछड़ा हुआ चुनाव तो किसे फायदा-किसे नुकसान पीयूष प्रियदर्शी इस बार पूरा चुनाव अगड़ा-पिछड़ा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। दुलारचंद प्रकरणँ के बाद यदि किसी ने आक्रामक बयान देने की कोशिश किया है तो वे पीयूष ही हैं। लेकिन यदि पूरा चुनाव अगड़ा-पिछड़ा पर होता है तो भी इसका लाभ अनंत सिंह को मिल सकता है क्योंकि मोकामा में लगभग एक तिहाई आबादी भूमिहारों की है। राजपूत और ब्राह्मणों का साथ मिलने पर यह आंकड़ा 40 फीसदी के करीब पहुंच जाता है। इस लड़ाई में अनंत सिंह को अगड़े समुदाय के साथ-साथ जातिगत हिंसा के दौर में एक प्रभावशाली जाति से पीड़ित होने वाली कई गैर यादव ओबीसी जातियां भी हैं। अब तक अनंत सिंह को इसका मिलाजुला वोट मिलता रहा है। इस चुनाव में भी उन्हें इस वर्ग के एक हिस्से का समर्थन मिल सकता है। लेकिन त्रिकोणीय लड़ाई अब आरपार की होने की संभावना भी जताई जा रही है। इस परिस्थिति में अनंत सिंह राजद उम्मीदवार पर भारी पड़ सकते हैं। 'राजनीतिक दलों ने दिखाई समझदारी' बिहार की राजनीति की नब्ज समझने वाले राजनीतिक विश्लेषक सुनील पांडेय ने अमर उजाला से कहा कि यदि दुलारचंद प्रकरण एक बड़े विवाद का केंद्र नहीं बन रहा है तो इसका श्रेय बड़े राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है। किसी बड़े नेता ने इस मुद्दे पर अब तक अगंभीर टिप्पणी नहीं की है। भाजपा-जदयू अब तक जंगलराज का मुद्दा उछालने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन इस मुद्दे ने उनके कदम भी पीछे खींच दिए हैं। वहीं, यदि राजद इस मुद्दे को उठाती है तो उसके अपने जंगलराज के दौर की कहानियां सामने आ सकती हैं। लिहाजा दोनों बड़े गठबंधनों ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। लेकिन यह बड़ी प्रशासनिक चूक का मामला है। जब दो बाहुबली आमने-सामने चुनाव लड़ रहे हों, और उसके बीच दुलारचंद जैसे अपराधियों का भी दखल हो तो प्रशासन को हर हाल में सतर्क होना चाहिए था। अब हथियारों की जब्ती चल रही है, यदि समय रहते हथियारों की जब्ती और अवैध हथियारों पर अंकुश लगाया गया होता तो इस तरह के हत्याकांड से बचा जा सकता था। अमित शाह जैसे बड़े नेता ने स्वयं राजनीतिक हिंसा को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त न करने की बात कही और उसी रात अनंत सिंह की गिरफ्तारी हो गई। इससे इस हत्याकांड को बेवजह तूल देने से बचने में मदद मिली है। सुनील पांडेय ने कहा, बिहार के लोगों ने जातीय हिंसा के दौर को देखा है। हजारों परिवारों ने अपने करीबियों को इस हिंसा की आग में जलते हुए देखा है। लोग अब किसी भी कीमत पर ऐसी जातीय हिंसा की वापसी नहीं चाहते। यही कारण है कि सोशल मीडिया पर भी इसको लेकर बहुत हलचल नहीं है। बिहार के लोग अब बुलेट से नहीं, बैलेट (ईवीएम) से जवाब देना चाहते हैं। इस हत्याकांड की असहज स्थिति में यही एक ऐसा संदेश है जो बिहार के लोग एक दूसरे से सुनना और सुनाना चाहते हैं।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 02, 2025, 15:07 IST
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