Dr Bhimrao Ambedkar: मनमानी व्याख्याओं के बीच डॉ. आंबेडकर, क्या वास्तव में हिंदू विरोधी थे?

राजनीतिक स्वार्थों के अनुसार डॉ. भीमराव आंबेडकर की सुविधाजनक स्वीकार्यता, उनके क्रांतिकारी विचारों पर पर्दा और जीवन से जुड़ी घटनाओं की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के बीच उनकी पत्नी डॉ. सविता आंबेडकर एक नई शख्सियत से परिचय कराती हैं। 1990 में प्रकाशित, मराठी में लिखित उनकी पुस्तक आंबेडकरांच्या सहसावात का उनके निधन के उन्नीस साल बाद अंग्रेजी में आई बाबासाहब : माई लाइफ विद डॉ. आंबेडकर सही परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन समाज और राजनीति से बाबासाहब के संघर्ष को पेश करती है। बाबासाहब के निजी जीवन, महिलाओं और परिवार के प्रति अब तक कम ज्ञात उनके विचार भी सामने आते हैं। 'मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ था, लेकिन उसमें रहकर मरूंगा नहीं', यह घोषणा कर बौद्ध बन जाने वाले डॉ. आंबेडकर क्या वास्तव में हिंदू विरोधी थे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से उनके विरोध का कारण क्या था एक दौर में उन्हें ब्रिटिश सत्ता का चाटुकार बताया गया। हकीकत क्या थी जाति के विनाश का उनका मिशन कितना सफल रहा उनके प्रति कुछ गैर-सवर्ण जातियों का व्यवहार कैसा था 1947 में भारत जिस रूप में मिला था, उसे अक्षुण्ण रखने में बाबासाहब का क्या योगदान है बाबासाहब के जीवन के अंतिम दशक में उनकी डॉक्टर, तीमारदार, सहायक, संगिनी और वस्तुतः संरक्षक रहीं डॉ. सविता की पुस्तक कई सवालों का जवाब देने के साथ ही बहुत सारी गुत्थियों को सुलझाने में मदद करती है। नेहरूकालीन भारत का एक बड़ा विवाद रहा है हिंदू कोड बिल। आम धारणा है कि इस बिल को प्रतिष्ठा का विषय बना बाबासाहब ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था। सच यह है कि कोड बिल एकमात्र कारण नहीं था। डॉ. सविता बताती हैं, बाबासाहब ने बिल तैयार करने से पहले व्यापक स्तर पर वेदों, पुराणों, शास्त्रों और स्मृतियों का अध्ययन किया, इसके साथ ही अन्य पुस्तकें पढ़कर नोट बनाने और किताबें लिखने का काम भी जारी रहता, मैं डॉक्टर होने के नाते उनसे थोड़ा आराम करने के लिए कहती, लेकिन हिंदू विशेषज्ञ और विद्वान सलाह-मशविरे के लिए आते रहते थे, नतीजतन उनकी आंखें और खराब हो गईं व सेहत भी गिरी। वह लिखती हैं, जब बाबासाहब बिल पेश करने की अनुमति लेने प्रधानमंत्री के पास गए, उन्होंने इसे मंजूर कराने का भरोसा दिलाया। लेकिन पांच फरवरी, 1951 को सदन में बिल प्रस्तुत करते ही हंगामा हो गया। लोकसभा अध्यक्ष मावलंकर, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल और सरदार हुकुम सिंह ने खुलकर विरोध किया। बाबासाहब ने 10 अगस्त, 1951 को नेहरू को मार्मिक पत्र लिखा, मुझे और डॉक्टरों को मेरे स्वास्थ्य की चिंता सता रही है। मैं चाहता हूं कि हिंदू कोड बिल पास हो जाए। प्रधानमंत्री जानते हैं, मैं इसे बहुत महत्व देता हूं। नेहरू का उत्तर था, चीजों को सहजता से लीजिए, क्योंकि सदन के अंदर और बाहर बिल का विरोध हो रहा है। कैबिनेट ने सितंबर में इस पर विचार का फैसला किया है। बाद में बिल टुकड़ों-टुकड़ों में पास हो पाया। बाबासाहब को नेहरू से उम्मीदें थीं, जो पूरी नहीं हो पाईं। यह अपेक्षाओं की त्रासदी थी। नेताजी सुभाष के साथ भी यही हुआ था। नेहरू क्रांतिकारी मुद्दों पर नेताजी का साथ देने के बजाय गांधीजी के हिसाब से चलते थे। संविधान का मसौदा पेश करने के समय तक बाबासाहब की सेहत काफी खराब हो चुकी थी। मधुमेह सहित कई बीमारियों से ग्रस्त बाबासाहब की नाभि के नीचे निकला फोड़ा ठीक नहीं हो पा रहा था। डॉ. सविता उनके साथ थीं। फोड़े पर दवा और ढेर सारी रुई की पट्टी बांधकर वह उन्हें ले गई थीं। उनके अनुरोध और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अनुमति से फोम की विशेष कुर्सी संविधान निर्माता के लिए लाई गई। इस अवसर पर बाबासाहब के ऐतिहासिक भाषण को डॉ. सविता शिद्दत से याद करती हैं, भारत में जातियां हैं। ये जातियां राष्ट्रविरोधी हैं। क्योंकि, प्रथमतः ये सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं। ये इसलिए भी राष्ट्रविरोधी हैं कि ये जाति और जाति के बीच ईर्ष्या व दुर्भाव पैदा करती हैं। लेकिन यदि हमें वास्तव में एक राष्ट्र बनना है, तो इन सब कठिनाइयों पर काबू पाना होगा।' डॉ. सविता टिप्पणी करती हैं, उन्होंने अछूतों के लिए जो भी किया, उससे ज्यादा हिंदुओं के लिए किया। उन्होंने मानव प्रगति के मार्ग में आने वाली धार्मिक परंपराओं पर प्रहार किया। हिंदू पुरुषों और महिलाओं के लिए समान अधिकारों का उन्होंने प्रावधान किया। हिंदू धर्म में व्याप्त कुप्रथाओं की कठोर आलोचना कर समाज की आंखें खोल दीं। नेहरू और इंदिरा गांधी ने आंबेडकर परिवार के लिए क्या किया डॉ. सविता के शब्दों में, साहब के निधन के बाद नेहरू ने मुझे सरकारी अस्पताल में चिकित्सा अधिकारी बनाने का प्रस्ताव रखा था। वह राज्यसभा में भी भेजने को तैयार थे। अगर मैं राज्यसभा चली जाती, तो उसका अर्थ होता कांग्रेस के खेमे में संरक्षण और वह डॉ. आंबेडकर के सिद्धांतों के खिलाफ होता। बाद में राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन और इंदिरा गांधी ने भी राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव रखा था। मेरा उत्तर था, मेरे पति ने उम्र भर कांग्रेस से लड़ाई लड़ी। कांग्रेस में शामिल होना मुझे कभी रुचिकर नहीं हो सकता। मैं उनके उसूलों से विश्वासघात नहीं कर सकती। सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्मी डॉ. शारदा कबीर महार जाति के बीमार डॉ. आंबेडकर की दो-तीन महीने तीमारदारी करने स्वेच्छा से आई थीं। सविता आंबेडकर के रूप में वह हमेशा केलिए उनकी हो गईं। जाति का विनाश डॉ. आंबेडकर की परिकल्पना थी। शारू ने उनसे विवाह कर पहले जाति के बंधन को तोड़ा और फिर उनके साथ बौद्ध हो गईं। इतनी परिपूर्ण जीवन संगिनी दुर्लभ ही होती है। विलायत से वकालत पढ़कर आने के बाद डॉ. आंबेडकर जज बनने की पेशकश मंजूर कर लेते, तो बेशक सुप्रीम कोर्ट तक जाते। सब कुछ छोड़ वकालत ही करते रहते, तो भारत के धनी वकीलों में शुमार हो जाते। पर क्रांतिकारी, चाहे राजनीतिक हों या सामाजिक, भौतिक सुख की कहां परवाह करते हैं! डॉ. सविता के अनुसार, बाबासाहब को आर्थिक चिंताएं रहती थीं। व्यापक मानवीय मूल्यों को समर्पित महान व्यक्तियों के विचारों पर अमल प्रायः आधा-अधूरा रहता है या होता ही नहीं। बाबासाहब के साथ भी यह हुआ। जाति का विनाश मृग मरीचिका सिद्ध हुआ। खुद अनुसूचित जातियां बुरी तरह बंटी हैं। जाति और धर्म के सहारे राजनीतिक वर्चस्व सुगम हुआ है। डॉ. आंबेडकर के विचारों का भाष्य करें, तो लोकतंत्र तंदुरुस्त नहीं है।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Jan 25, 2023, 02:04 IST
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