मुद्दा: जेल से सरकार चलाने के पीछे की हसरत, इसे दूर करने के लिए सुधार जरूरी
अरसे से चुनाव सुधार के लिए ऐसी विसंगतियां दूर करने की मांग उठती रही है, जिनके चलते दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों के आरोपियों को चुनाव लड़ने के अधिकार के साथ, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री रहते हुए जेल से सरकार चलाने का अधिकार भी मिला हुआ है। लेकिन, अब सरकार तीन संविधान संशोधन विधेयकों के जरिये इन विरोधाभासी कानूनों को बदलने की तैयारी में है। पहला, संविधान में 130वां संशोधन विधेयक-2025 है, जिसके तहत 30 दिन तक जेल में रहकर पद पर बने रहने वाले प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों को हटाने का प्रविधान है। दूसरा विधेयक केंद्र शासित प्रदेशों के लिए इन्हीं प्रिवधानों के साथ लागू होगा। तीसरा विधेयक जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 (34) के तहत गंभीर आपराधिक आरोपों के कारण गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए मुख्यमंत्री या मंत्री को पद से हटाने का कोई प्रावधान नहीं है। अतएव धारा-54 में संशोधन करके आपराधिक छवि वाले मुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को 30 दिन में हटाने का प्रविधान किया जाएगा। देश में जाति और संप्रदाय आधारित विडंबनाएं इस हद तक हैं कि अनेक दागी चुनाव जीत भी जाते हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत जेल में बंद खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह और आतंकी फंडिग में तिहाड़ जेल में बंद इंजीनियर रशीद ने पिछले साल लोकसभा चुनाव जीता। विचारणीय बिंदु यह भी है कि हत्या, दुष्कर्म, आतंक, अलगाव और हिंसा भड़काने वाले लोग यदि जीतकर संसद और विधानसभा में पहुंच जाते हैं, तब क्या इन सदनों की गरिमा या संविधान की महिमा बढ़ जाती है यदि नहीं बढ़ती, तो राजनीतिक दल इन्हें टिकट क्यों देते हैं क्या उन्हें देश की अखंडता की चिंता नहीं है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 10 जुलाई, 2013 को दिए एक फैसले के अनुसार, किसी आपराधिक मामले में दो वर्ष की सजा पाए दोषी सांसद, विधायक व अन्य जनप्रतिनिधियों को पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। अदालत ने इस फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को रद्द कर दिया था। लेकिन, इस फैसले के विरुद्ध केंद्र सरकार ने संसद में सर्वसम्मति से संशोधन विधेयक लाकर शीर्ष अदालत के फैसले को चुनौती दी थी। इस बिल में धारा 8 की उपधारा 4 में एक प्रावधान जोड़ा, ताकि दागी नेताओं की कुर्सी बची रहे और वे सदन की कार्यवाही में भागीदारी करते रहें, लेकिन अदालत ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि उपधारा 4 भेदभावपूर्ण है, क्योंकि यह दोषी ठहराए गए आमजन को तो चुनाव लड़ने से रोकती है, लेकिन जनप्रतिनिधि को सुरक्षा मुहैया कराती है। दरअसल, दागियों के कंधे पर टिका विपक्ष ऐसे कानूनों का पक्षकार इसलिए है, ताकि वह संप्रदाय और जाति के ध्रुवीकरण के आधार पर जीते प्रतिनिधियों के बूते अपना वर्चस्व संसद में बनाए रखे। संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा दोषी-करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि जब कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता है, तो वह जनप्रतिनिधि बनने के नजरिये से निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत यह दोहरा मापदंड समानता के अधिकार का उल्लंघन है। समान न्यायिक व्यवहार की इस मांग को जनहित याचिका के जरिये लिली थॉमस और लोक प्रहरी नामक एनजीओ ने अदालत के समक्ष रखा था। याचिका में दर्ज इस विसंगति को शीर्ष न्यायालय ने अपने अभिलेख में प्रश्नांकित करते हुए तब की मनमोहन सिंह सरकार से जवाब-तलब भी किया था। केंद्र ने शपथपत्र देकर तर्क गढ़ा था कि कई बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, लिहाजा सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर दी जाती है, तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है। सरकार ने यह भी तर्क दिया था यह उन मतदाताओं के सांविधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है। जाहिर है, सरकार राजनीति में शुचिता लाने के बरक्स अपराध बहाली को तरजीह दे रही थी। जनता अथवा मतदाता से राजनीतिक सुधार की उम्मीद करना इसलिए बेमानी है, क्योंकि राजनीति और उसके पूर्वाग्रह पहले से ही मतदाताओं को धर्म और जाति के आधार पर बांट चुके होते हैं। वैसे भी देश में इतनी अज्ञानता, अशिक्षा, असमानता और गरीबी है कि लोग बांटी जा रही मुफ्त की रेवड़ियों के आधार पर मतदान करने लगे हैं। ऐसे में जिस स्तर पर भी केंद्र सरकार राजनीति में शुचिता और नैतिकता के कानूनी मानदंड स्थापित करने के प्रयास में है, तो विपक्ष को राष्ट्रहित में समर्थन करने की जरूरत है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: Aug 26, 2025, 06:37 IST
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