गणतंत्र : उपलब्धियों वाला आत्मनिर्भर गणराज्य जहां सांविधानिक लोकतंत्र ने खुद को किया मजबूत

जर्मनी की दार्शनिक एवं राजनीतिक सिद्धांतकार हाना आरेंट ने तर्क दिया कि केवल वही क्रांतियां सफल हुईं, जिसने खुद को राजनीति तक सीमित रखा और सामाजिक मुद्दों तक उसे विस्तार नहीं दिया। उन्होंने इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति (1688) और अमेरिकी क्रांति (1766) को सफल बताया, जबकि फ्रेंच (1789) एवं रूसी (1917) क्रांतियों को विफल बताया। लेकिन उत्तर-औपनिवेशिक समाजों की स्थिति भिन्न है। संपूर्ण सामाजिक क्षेत्र पर थोपी गई विकृतियां यह अनिवार्य कर देती हैं कि स्वतंत्रता के बाद निर्माण कार्य राजनीतिक एवं सामाजिक, दोनों क्षेत्रों में होना चाहिए। दयानंद और विवेकानंद के नेतृत्व में चले सुधार आंदोलन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में प्रकट हुए। सिपाही विद्रोह के बाद भारत के अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन में आने पर शिक्षा और सरकारी रोजगार में सीमित अवसरों ने एक छोटे, लेकिन शक्तिशाली मध्यम वर्ग के उदय को सक्षम बनाया, जिसने 1876 में भारत सभा (इंडियन नेशनल एसोसिएशन) की स्थापना और फिर 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ राष्ट्रीय मुद्दों का नेतृत्व किया। गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस एक बड़े समूह की कार्यकर्ता आधारित पार्टी के रूप में पूर्णतः तब्दील हो गई। प्रारंभिक अर्थ में भारतीय राष्ट्र अपनी समृद्ध विरासत, वर्तमान दुर्दशा और निकट भविष्य में प्राप्त होने वाले भविष्य के आदर्श के दावे के साथ सामने आया था। गांधी ने कांग्रेस को एक लोकतांत्रिक संविधान प्रदान किया, और सामान्य व्यक्ति की जरूरतों व आकांक्षाओं को दर्शाते हुए कांग्रेस के आधार को व्यापक बनाया। इसके बाद उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रमों के लिए एक खाका प्रदान करके सामाजिक पहलू को विस्तार से बताया। सामाजिक कल्याण और स्वतंत्रता को साकार करने के दोहरे उद्देश्यों के साथ कांग्रेस स्वतंत्र उपनिवेश से पूर्ण स्वतंत्रता की ओर बढ़ी। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत में, जब संविधान सभा को स्वतंत्र भारत के लिए एक संविधान बनाने का काम सौंपा गया था, तो उसके सदस्य नए राष्ट्र को दमनकारी राजनीतिक तंत्र से दूर करने के लिए एक नए संविधान की महत्ता को जानते थे और उसी से स्थानीय गरीबी, निरक्षरता, पिछड़ेपन से निपटना चाहते थे। सौभाग्य से, 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत प्रांतों पर शासन करने के सीमित अनुभव ने जरूरी विश्वास प्रदान किया और यही कारण था कि संविधान में प्रशासनिक दिशा-निर्देशों का बड़ा हिस्सा इससे उधार लिया गया था। संविधान निर्माता भविष्य के विचलन के लिए कोई कमी नहीं छोड़ सकते थे और यही संविधान की लंबाई का कारण था। ग्रैनविले ऑस्टिन ने संविधान की तीन गैर-परिवर्तनीय बुनियादी दिशाएं बताईं : (1) राष्ट्र की एकता और अखंडता, (2) मौलिक अधिकारों से सुसज्जित एक खुला समाज और (3) सामाजिक तथा आर्थिक मामलों में समता व समानता सुनिश्चित करने के लिए निर्देशक सिद्धांतों में परिलक्षित सामाजिक न्याय। यह सांविधानिक ढांचे के भीतर एक संतुलनकारी कार्य था, जो आंबेडकर के शब्दों में, 'समय और परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुसार एकात्मक और संघीय दोनों' हो सकता था। 'न्याय' शब्द का प्रयोग विशेष रूप से जीवन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, सभी क्षेत्रों में सांविधानिक प्रावधानों को लागू करने के लिए किया गया था। यह स्पष्ट रूप से अवसर की समानता और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इसने अल्पसंख्यकों, दलितों और पिछड़े वर्गों के साथ-साथ अविकसित और जनजातीय क्षेत्रों के लिए भी पर्याप्त सुरक्षा उपायों को जोड़ा और मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में राष्ट्र के समग्र विकास के दृष्टिकोण की पेशकश की। संविधान की इस केंद्रीयता और शासन कला का परीक्षण कम से कम समय में लोगों की शिकायतों को दूर करने के लिए शासकों की क्षमता की प्रभावशीलता से होगा। पश्चिम के विपरीत (जहां सांविधानिक लोकतंत्र सामाजिक लोकतंत्र से पहले से था, जिसे एक व्यक्ति एक वोट के साथ सही मायने में प्रतिनिधित्व करने में दशकों लग गए) भारत ने एक ही झटके में एकजुटता, समानता और गणतांत्रिक भावना को सुनिश्चित किया। भारतीय संविधान ने एक जीवंत राजनीतिक समाज की कल्पना की थी, जो एक राज्यवादी उद्यम की विशाल शक्तियों पर रोक लगाएगा, जहां शाश्वत सतर्कता स्वतंत्रता सुनिश्चित करेगी। एकल नागरिकता के क्रांतिकारी निहितार्थ थे। भारतीय संविधान ने एक झटके में पिछड़ेपन की चिंताओं को संबोधित किया, जिसमें कानून का शासन, सहनशीलता की भावना और एक विविध व बहुल सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित करने का वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत तरीका शामिल था। अर्नेस्ट बार्कर ने सार्वजनिक कार्य की सर्वोत्तम संभव घोषणा के रूप में संविधान की प्रस्तावना की प्रशंसा की। यदि हम पिछले सात दशकों से भारतीय संविधान के कामकाज का विश्लेषण करें, तो यह समय की कसौटी पर खरा उतरा है। आपातकाल की शर्मनाक अवधि को छोड़कर मुख्य रूप से कार्यपालिका और सांविधानिक न्यायालय के बीच मतभेद को सफलतापूर्वक सुलझा लिया गया है। हाल के वर्षों में एक जीवंत क्षेत्रीय प्रेस, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सामाजिक संपर्क के अन्य मंचों ने लोगों के बीच लोकतांत्रिक गणतंत्रात्मक भावना का प्रसार किया है। सूचना का अधिकार (आरटीआई) के समावेश और अपने उच्च मतदान प्रतिशत के जरिये लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए गरीबों का उत्साह प्रोत्साहित करने वाला है। हालांकि, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसी आवश्यक सेवाओं में भारी असमानता है। हमें अभी योग्य संस्थाओं की स्थापना करनी है। एक धीमी न्यायिक प्रक्रिया आपराधिक न्याय प्रणाली के पतन को दर्शाती है। बदतर मानव विकास सूचकांकों के बारे में भी हमें आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है, क्योंकि हमारे साथ लोकतंत्र का सफर शुरू करने वाले कई अन्य राष्ट्रों ने ऐसी ही परिस्थितियों में हमसे बेहतर प्रदर्शन किया है। उत्तर और दक्षिण के बीच एक खतरनाक विभाजन है, लेकिन भारत के पास जनसांख्यिकीय लाभ भी है। भारत में सांविधानिक लोकतंत्र ने खुद को मजबूत किया है। भारत उपलब्धियों वाला एक आत्मनिर्भर गणराज्य है, जिस पर गर्व किया जा सकता है, पर अब भी कमियां हैं। अब हमें खाई को पाटना है और एक ऐसे भारत का निर्माण करना है, जो स्पष्ट रूप से गणतंत्रात्मक गुणों का प्रदर्शन करेगा।  

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Jan 26, 2023, 05:31 IST
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