मुद्दा: भाषाई स्वाभिमान की लहर... स्थानीय भाषाओं के विस्तार से हिंदी के प्रति सकारात्मक सोच विकसित होने की आस
देश में इन दिनों भाषाई स्वाभिमान की जैसे लहर चल रही है। पता नहीं यह संयोग है या कुछ और, महाराष्ट्र और असम ने अपनी-अपनी भाषाओं को राजकीय कामकाज का माध्यम बना दिया है। ऐसा लग रहा है, मानो अरब सागर की लहरों पर सवार होकर मराठी महाराष्ट्र के लोक में उफान मार रही है, तो हिमालय के उत्तुंग शिखरों की भांति असमिया भाषा अहोम राजाओं के देश में नई ऊंचाई हासिल करने जा रही है। राजकाज में अपनी भाषाओं को लेकर ऐसा उछाह और नेह दक्षिणी राज्यों और पश्चिम बंगाल में पहले से ही दिखता रहा है। पंजाब में पंजाबी की भी कुछ ऐसी ही बल्ले-बल्ले है। कह सकते हैं कि देश में इन दिनों अपनी भाषाओं को लेकर स्वाभिमान बोध का विस्फोट हो रहा है। आधुनिक भारतीय राजनीति में गांधी पहली शख्सियत हैं, जो स्वाधीन भारत को लेकर ठोस और भविष्योन्मुखी भाषानीति प्रस्तुत करते हैं। गांधी जी चाहते थे कि देश के हर राज्य में शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषा होना चाहिए। साथ ही गांधी स्थानीय भाषाओं को राजकाज में भी शामिल करना चाहते थे। लेकिन दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में गांधी के सपनों के अनुसार स्वाधीन भारत की भाषा नीति ऐसी नहीं बन पाई। बेशक गैर-हिंदीभाषी राज्यों ने अपने यहां शिक्षा का माध्यम अपनी भाषाओं को बनाया, राजकाज की भाषा भी बनाया। लेकिन यह प्रयास आधा-अधूरा ही रहा। अंग्रेजी माध्यम का बोलबाला बढ़ता रहा। राजकीय प्रतिबद्धता और निर्देशन के बावजूद राजकाज में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग को पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका। इन संदर्भों में महाराष्ट्र और असम सरकारों के फैसले क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं। महाराष्ट्र ने जहां तीन फरवरी को मराठी के जरिये राजकाज करना जरूरी किया, वहीं असम ने 17 अप्रैल को राजकाज में असमिया को प्रभावी स्थान देना शुरू किया। असम की बराक घाटी और बोडोलैंड आदिवासी क्षेत्र के जिलों में बांग्ला और बोडो भाषाओं को असमिया की तरह ही राजकाज की भाषा का दर्जा दिया है। पढ़ाई तो खैर पहले से ही इन राज्यों में इन भाषाओं में हो रही है। महाराष्ट्र द्वारा मराठी एवं असम में असमिया, बांग्ला और बोडो को महत्व देने जैसे कदम हर भारतीय राज्य को उठाने चाहिए। इन दोनों राज्यों के लोक में अपनी भाषाओं को लेकर स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह रही कि भाषाई स्वाभिमान बोध के बावजूद इन राज्यों की राजनीति इतने समय तक अपनी भाषाओं को राजकीय कार्य में जरूरी नहीं बना पाई। निश्चित तौर पर इसके पीछे हमारी भाषाई गुलामी की भावना काम कर रही थी। गांधी ने हिंद स्वराज में कहा है कि सारे हिंदुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह हिंदी ही हो सकती है। लेकिन हमने अंग्रेजी को संपर्क भाषा के रूप में अपनाया। असम सरकार के फैसले में भी इसकी झलक दिख रही है। उसमें कहा गया है कि केंद्र और दूसरे राज्यों से संपर्क और संवाद के लिए अंग्रेजी का ही प्रयोग होगा। 2020 में आई नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा फॉर्मूले की बात कही गई है। मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को जरूरी बनाने की वकालत दुनिया भर के शिक्षाशास्त्री करते रहे हैं। गांधीजी ने भी लिखा है, भारत के युवक और युवतियां अंग्रेजी और दुनिया की दूसरी भाषाएं खूब पढ़ें, मगर मैं हरगिज यह नहीं चाहूंगा कि कोई भी हिंदुस्तानी अपनी मातृभाषा को भूल जाए या उसकी उपेक्षा करे या उसे देखकर शरमाए अथवा यह महसूस करे कि अपनी मातृभाषा के जरिये वह ऊंचे से ऊंचा चिंतन नहीं कर सकता। नई शिक्षा नीति के त्रिभाषा सूत्र को गांधी के चिंतन का कार्यान्वयन कह सकते हैं। त्रिभाषा यानी स्थानीय भाषा, हिंदी या अंग्रेजी और राज्य की अपनी भाषा से इतर कोई अन्य भारतीय भाषा को सीखने को जरूरी बनाया गया है। तमिलनाडु जैसे कुछ राज्य स्थानीय और अंग्रेजी के जरिये द्विभाषा फॉर्मूले को ही मान्यता दे रहे हैं। महाराष्ट्र ने इस फॉर्मूले के तहत हिंदी को स्वीकार किया, तो वहां से भी आवाजें उठने लगीं। लेकिन स्थानीय भाषाबोध के बढ़ते कदम के बावजूद आधिकारिक तौर पर संपर्क भाषा का स्थान हिंदी नहीं ले पाई है। यही वजह है कि मराठी जैसे हिंदी के नजदीकी राज्यों में भी जब हिंदी को दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाने की शुरुआत होती है, उसका विरोध होने लगता है। जब भी गैर-हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी की बात होती है, तो उस पर एक तरह से वर्चस्ववादी होने का आरोप लगा दिया जाता है। लेकिन सत्य इससे परे है। उम्मीद है कि स्थानीय भाषाओं के विस्तार से हिंदी के प्रति सकारात्मक सोच विकसित होगी। भारतीय भाषाएं जिस तरह स्थापित हो रही हैं, हिंदी भी आधिकारिक रूप से सारे हिंदुस्तान की भाषा के रूप में स्थापित होगी। वैसे व्यावहारिक रूप से बाजार और संचार माध्यमों ने हिंदी को यह स्थान पहले ही दिला रखा है।
- Source: www.amarujala.com
- Published: May 05, 2025, 07:41 IST
मुद्दा: भाषाई स्वाभिमान की लहर... स्थानीय भाषाओं के विस्तार से हिंदी के प्रति सकारात्मक सोच विकसित होने की आस #Opinion #National #SubahSamachar