भीष्म साहनी की कहानी- गुलेलबाज़ लड़का

छठी कक्षा में पढ़ते समय मेरे तरह-तरह के सहपाठी थे। एक हरबंस नाम का लड़का था, जिसके सब काम अनूठे हुआ करते थे। उसे जब सवाल समझ में नहीं आता तो स्याही की दवात उठाकर पी जाता। उसे किसी ने कह रखा था कि काली स्याही पीने से अक्ल तेज़ हो जाती है। मास्टर जी गुस्सा होकर उस पर हाथ उठाते तो बेहद ऊँची आवाज़ में चिल्लाने लगता -- "मार डाला! मास्टर जी ने मार डाला!" वह इतनी ज़ोर से चिल्लाता कि आसपास की जमातों के उस्ताद बाहर निकल आते कि क्या हुआ है। मास्टर जी ठिठक कर हाथ नीचा कर लेते। यदि वह उसे पीटने लगते तो हरबंस सीधा उनसे चिपट जाता और ऊँची-ऊँची आवाज़ में कहने लगता -- "अब की माफ़ कर दो जी! आप बादशाह हो जी! आप अकबर महान हो जी! आप सम्राट अशोक हो जी! आप माई-बाप हो जी, दादा हो जी, परदादा हो जी!" क्लास में लड़के हँसने लगते और मास्टर जी झेंपकर उसे पीटना छोड़ देते। ऐसा था वह हरबंस। हर आए दिन बाग़ में से मेंढक पकड़ लाता और कहता कि हाथ पर मेंढक की चर्बी लगा लें तो मास्टर जी के बेंत का कोई असर नहीं होता। हाथ को पता ही नहीं चलता कि बेंत पड़ा है। एक दूसरा सहपाठी था -- बोधराज। इससे हम सब डरते थे। जब वह चिकोटी काटता तो लगता जैसे साँप ने डस लिए है। बड़ा जालिम लड़का था। गली की नाली पर जब बर्रें आकर बैठते तो नंगे हाथ से वह बर्र पकड़ कर उसका डंक निकाल लेता और फिर बर्रें की ताँक में धागा बाँधकर उसे पतंग की तरह उड़ाने की कोशिश करता। बाग़ में जाते तो फूल पर बैठी तितली को लपक कर पकड़ लेता और दूसरे क्षण उँगलियों के बीच मसल डालता। अगर मसलता नहीं तो फड़फड़ाती तितली में पिन खोंस कर उसे अपनी कापी में टाँक लेता। उसके बारे में कहा जाता था कि अगर बोधराज को बिच्छू काट ले तो स्वयं बिच्छू मर जाता है। बोधराज का ख़ून इतना कड़वा है कि उसे कुछ भी महसूस नहीं होता। सारा वक़्त उसके हाथ में गुलेल रहती और उसका निशाना अचूक था। पक्षियों के घोंसलों पर तो उसकी विशेष कृपा रहती थी। पेड़ के नीचे खड़े होकर वह ऐसा निशाना बाँधता कि दूसरे ही क्षण पक्षियों की "चों-चों" सुनाई देती और घोंसलों में से तिनके और थिगलियाँ टूट-टूट कर हवा में छितरने लगते, या वह झट से पेड़ पर चढ़ जाता और घोंसलों में से अंडे निकाल लाता। जब तक वह घोंसलों को तोड़-फोड़ नहीं डाले, उसे चैन नहीं मिलता था। उसे कभी भी कोई ऐसा खेल नहीं सूझता था जिसमें किसी को कष्ट नहीं पहुँचाया गया हो। बोधराज की माँ भी उसे राक्षस कहा करती थीं। बोधराज जेब में तरह-तरह की चीज़ें रखे घूमता, कभी मैना का बच्चा, या तरह-तरह के अण्डे, या काँटेदार झाऊ चूहा। उससे सभी छात्र डरते थे. किसी के साथ झगड़ा हो जाता तो बोधराज सीधा उसकी छाती में टक्कर मारता, या उसके हाथ पर काट खाता। स्कूल के बाद हम लोग तो अपने-अपने घरों को चले जाते, मगर बोधराज न जाने कहाँ घूमता रहता। कभी-कभी वह हमें तरह-तरह के क़िस्से सुनाता। एक दिन कहने लगा -- "हमारे घर में एक गोह रहती है। जानते हो गोह क्या होते है" "नहीं तो, क्या होती है गोह" "गोह, साँप जैसा एक जानवर होता है, बालिश्त भर लम्बा, मगर उसके पैर होते हैं, आठ पंजे होते हैं। साँप के पैर नहीं होते।" हम सिहर उठे। हमारे घर में सीढ़ियों के नीचे गोह रहती है," -- वह बोला -- "जिस चीज़ को वह अपने पंजों से पकड़ ले, वह उसे कभी भी नहीं छोड़ती, कुछ भी हो जाए नहीं छोड़ती।" हम फिर सिहर उठे. "चोर अपने पास गोह को रखते हैं. वे दीवार फाँदने के लिए गोह का इस्तेमाल करते हैं। वे गोह की एक टाँग में रस्सी बाँध देते हैं. फिर जिस दीवार को फाँदना हो, रस्सी झुलाकर दीवार के ऊपर की ओर फेंकते हैं। दीवार के साथ लगते ही गोह अपने पंजों से दीवार को पकड़ लेती है। उसका पंजा इतना मज़बूत होता है कि फिर रस्सी को दस आदमी भी खींचे, तो गोह दीवार को नहीं छोड़ेगी। चोर उसी रस्सी के सहारे दीवार फाँद जाते हैं।" "फिर दीवार को तुम्हारी गोह छोड़ती कैसे है" -- मैंने पूछा. "ऊपर पहुँचकर चोर उसे थोड़ा-सा दूध पिलाते हैं, दूध पीते ही गोह के पंजे ढीले पड़ जाते हैं।" इसी तरह के किस्से बोधराज हमें सुनाता। उन्हीं दिनों मेरे पिताजी की तरक्की हुई और हम लोग एक बड़े घर में जाकर रहने लगे। घर नहीं था, बंगला था, मगर पुराने ढंग का और शहर के बाहर। फ़र्श ईंटों के, छत ऊँची-ऊँची और ढलवाँ, कमरे बड़े-बड़े, लेकिन दीवार में लगता जैसे गारा भरा हुआ है। बाहर खुली ज़मीन थी और पेड़-पौधे थे। घर तो अच्छा था, मगर बड़ा ख़ाली-ख़ाली सा था। शहर से दूर होने के कारण मेरा कोई दोस्त-यार भी वहाँ पर नहीं था। तभी वहाँ बोधराज आने लगा। शायद उसे मालूम हो गया कि वहाँ शिकार अच्छा मिलेगा, क्योंकि उस पुराने घर में और घर के आँगन में अनेक पक्षियों के घोंसले थे, आसपास बंदर घूमते थे और घर के बाहर झाड़ियों में नेवलों के दो एक बिल भी थे। घर के पिछले हिस्से में एक बड़ा कमरा था, जिसमें माँ ने फ़ालतू सामान भर कर गोदाम-सा बना दिया था। यहाँ पर कबूतरों का डेरा था। दिन भर गुटर-गूँ-गुटर-गूँ चलती रहती। वहाँ पर टूटे रोशनदान के पास एक मैना का भी घोंसला था। कमरे के फ़र्श पर पंख और टूटे अण्डे और घोंसलों के तिनके बिखरे रहते।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Aug 07, 2025, 19:50 IST
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