भू-राजनीति में मनमानी नहीं चलती: ट्रंप दो कदम आगे, तीन कदम पीछे... राष्ट्राध्यक्ष मनमानी करने लगें, तो दोस्त..

यह कयास लगाया जा रहा था कि जब डोनाल्ड ट्रंप अलास्का में व्लादिमीर पुतिन से मिलेंगे, तो इतिहास का एक नया अध्याय लिखा जाएगा। लेकिन, जो हुआ वह अमेरिका और यूरोप के कुछ नेताओं को काफी निराशा दे गया और पुतिन के कद को और ऊंचा बना गया। यूरोपीय नेताओं की निराशा जायज हो सकती है, लेकिन उन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि ट्रंप की विदेश नीति उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से चलती है, जिसमें दुनिया में घट रही घटनाओं और वैश्विक उथल-पुथल के लिए कोई खास जगह नहीं है। इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले अमेरिकी विदेश नीति के इतिहास पर एक नजर डालने की आवश्यकता है। 14 फरवरी, 1972 को राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने चीन की यात्रा कर निक्सन को सलाह दी थी कि रूसियों की तुलना में चीनी उतने ही खतरनाक हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि, 20 साल बाद आपका उत्तराधिकारी, यदि वह आपकी तरह बुद्धिमान हुआ, तो चीनियों के विरुद्ध रूसियों की ओर झुक जाएगा। ट्रंप 45वें राष्ट्रपति के रूप में भी शुरुआत में रूस की तरफ झुकते दिखे थे, लेकिन बाद में बदल गए। अब 47वें राष्ट्रपति के रूप में भी कुछ वैसा ही दिख रहा है। 1950 के दशक में आइजनहावर प्रशासन ने चीन के नेता माओ त्से तुंग और सोवियत संघ के निकिता ख्रुश्चेव के बीच दरार डालने की कोशिश में रूसियों से बेहतर संबंध रखे। अक्तूबर 1959 में, जब ख्रुश्चेव आइजनहावर से कैंप डेविड में मुलाकात कर लौटे, तो वे बीजिंग पहुंचे और यह संदेश दिया कि चूंकि अमेरिका के साथ सोवियत संबंध सुधरे हैं, इसलिए मास्को चीन को परमाणु बम बनाने में मदद करने का समझौता तोड़ देगा। इसके दस साल बाद निक्सन ने आइजनहावर की नीति पलट दी और अमेरिका की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बीजिंग को शामिल कर लिया। कुछ साल बाद राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इस नीति को और आगे बढ़ाया। सोवियत प्रभाव को दक्षिण-पूर्व एशिया में फैलने से रोकने के लिए कार्टर प्रशासन ने चीन के वियतनाम पर आक्रमण को मौन स्वीकृति दे दी। इसके बाद की अमेरिकी सरकारों-चाहे वे डेमोक्रेट हों या रिपब्लिकन, ने अंगोला, अफगानिस्तान और कंबोडिया में सोवियत संघ के खिलाफ चीन के साथ मिलकर प्रॉक्सी युद्ध लड़े, जिसने सोवियत शक्ति को बुरी तरह कमजोर किया। यानी आज अमेरिका जो भी कर रहा है, वह उसकी कूटनीतिक परंपरा का हिस्सा रहा है, लेकिन ट्रंप दो कदम आगे तो तीन कदम पीछे और कुछ कदम दाएं-बाएं चलते दिखाई देते हैं। यह दिख रहा है कि अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप की विदेश नीति गहन जानकारी और विशेषज्ञता के बजाय उनकी गट फीलिंग पर आधारित है। इस समय ट्रंप ने जो माहौल निर्मित किया है, उससे ऐसा लगता है कि सभी को अमेरिकी बाजारों तक पहुंच चाहिए। वैसे यह सच भी है, तभी तो ट्रंप ने अपनी विदेश नीति को टैरिफ हथियार के जरिये चलाना शुरू किया। लेकिन, यह हथियार व्यक्तिगत तौर पर डोनाल्ड ट्रंप के हित में भले ही हो, अमेरिका के हित में नहीं है। ट्रंप अगर माइट-मेक्स-राइट के सार्वभौमिक सिद्धांत पर चलने का निर्णय ले चुके हैं, तो उनके लिए यह नुकसानदेह है, क्योंकि यह दोस्तों को दूर कर देगा और दुश्मनों को डरा नहीं पाएगा। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में राष्ट्रपति की मनमानी नहीं, बल्कि सुसंगत सिद्धांत होने चाहिए। मनमानी जियो पॉलिटिक्स में प्रायः अप्रत्याशित व खतरनाक परिणाम देती है। वैसे भी ट्रंप न तो विश्ववादी (ग्लोबलिस्ट) हैं, न एकांतवादी (आइसोलेसनिस्ट) हैं और न ही क्षेत्रीय प्रभाव वाले क्षेत्रों (रीजनल स्फेयर्स) के समर्थकों पर विश्वास रखने वाले हैं, वह सिर्फ ट्रंपवादी हैं। उनकी विदेश नीति को तीन श्रेणियों में बांट कर देख सकते हैं। पहली श्रेणी में चीन और रूस जैसी शक्तियां आती हैं। दूसरी में भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को रखा जा सकता है और तीसरी श्रेणी में वे गरीब देश आते हैं, जिन्हें बड़ी शक्तियां ग्रेट गेम का हिस्सा बनाए रखना चाहती हैं। रूस व चीन से अमेरिकी संबंध जटिल और टकरावपूर्ण रहे हैं। आज के समय में यदि इनके साथ यूक्रेन, इस्राइल, ईरान, सीरिया, तुर्किये, उत्तर कोरिया और ताइवान जैसे देशों को भी जोड़ दें, क्योंकि इनके हेड या टेल वहां तक हैं, तो मामला और जटिल हो जाता है। ऐसे में ट्रंप की जिम्मेदारी यूक्रेन युद्ध खत्म करवाने और इस्राइल पर नियंत्रण स्थापित कर फलस्तीन में शांति लाने की हो जाती है। यदि ऐसा हुआ तो दुनिया मान लेगी कि ट्रंपिज्म सफल है। हो सकता है कि यह उन्हें नोबेल पुरस्कार तक भी पहुंचा दे। लेकिन, निष्कर्ष तक पहुंचते हुए यह ध्यान रखना होगा कि पुतिन एशिया-प्रशांत क्षेत्र में व्यापक भूमिका निभाना चाहते हैं और चीन हिंद-महासागर में अपना जाल बिछाते हुए इसे क्षेत्र में शक्ति संतुलन के लिए इस्तेमाल करने का हुनर सीख चुका है। यानी ट्रंपिज्म की राह में दीवार ही नहीं सीधे पर्वत खड़ा है। वैसे भी ट्रंप चीन से डरे हुए लग रहे हैं। तभी तो पहले चीन को टैरिफ से डराने की कोशिश की, लेकिन जब चीन ने पलटवार कर दिया, तो इतना डर गए कि एक बार फिर समयसीमा बढ़ा दी। यही नहीं उन्होंने एनवीडिया चिप्स के निर्यात पर प्रतिबंध हटाकर अपनी ही राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को कमजोर कर दिया। ट्रंप भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के साथ जैसा व्यवहार कर रहे हैं, उससे ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका अमेरिका को एक संदिग्ध की तरह देख रहे हैं और भारत के साथ बना हुआ तालमेल कमजोर पड़ता दिख रहा है। संभव है कि ब्रिक्स इस तालमेल को और मजबूत करे। हां, गरीब या छोटे देशों जैसे अजरबेजान और आर्मीनिया तथा कांगो और रवांडा में ट्रंप कामयाब रहें। अजरबेजान-आर्मीनिया में शांति समझौता और कांगो-रवांडा के बीच संघर्ष विराम ट्रंप की उपलब्धियों के रूप में देखा जा सकता है। कुल मिलाकर ट्रंप की विदेश नीति एक तरफ मास्को और बीजिंग की मनुहार, पाकिस्तान से क्रिप्टो डील के बदले नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकन में सहयोग और कतर के साथ गिफ्ट डिप्लोमैसी (विमान) तक सिमटी दिख रही है। इससे ट्रंप के हित भले ही सध जाएं, लेकिन अमेरिका के हाथ कुछ नहीं लगेगा, बल्कि दुनिया इस निष्कर्ष पर पहुंच जाएगी कि अमेरिकी शक्ति अब न तो बेजोड़ है और न ही निर्विवाद।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Aug 27, 2025, 07:16 IST
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