अज्ञेय की कविता: तभी तो साँप की कुण्डली हिलती नहीं फन डोलता है

वासना को बाँधने को तूमड़ी जो स्वर-तार बिछाती है- आह! उसी में कैसी एकांत निविड़ वासना थरथराती है ! तभी तो साँप की कुण्डली हिलती नहीं- फन डोलता है । कभी रात मुझे घेरती है, कभी मैं दिन को टेरता हूँ, कभी एक प्रभा मुझे हेरती है, कभी मैं प्रकाश-कण बिखेरता हूँ। कैसे पहचानूँ कब प्राण-स्वर मुखर है, कब मन बोलता है साँस का पुतला हूँ मैं: जरा से बँधा हूँ और मरण को दे दिया गया हूँ: पर एक जो प्यार है न, उसी के द्वारा जीवनमुक्त मैं किया गया हूँ । काल की दुर्वह गदा को एक कौतुक-भरा बाल क्षण तोलता है ! हमारे यूट्यूब चैनल कोSubscribeकरें।

  • Source: www.amarujala.com
  • Published: Nov 20, 2025, 20:09 IST
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